: ३० : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
[१०५] आ वात नहि समजनाराओनी केटलीक भ्रमणाओ.
आत्मा ज्ञायक छे, ने ज्ञायकस्वभावे परिणमतो ते क्रमबद्धपर्यायोनो ज्ञाता ज छे. आमां
ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिनुं अनंतु जोर आवे छे, ते नहि समजनारा अज्ञानी मूढ जीवोने आमां एकांत नियतपणुं
ज भासे छे, पण तेनी साथे स्वभाव अने पुरुषार्थ, श्रद्धा अने ज्ञान वगेरे आवी जाय छे ते तेने भासता नथी.
केटलाक लोको आ वात सांभळ्या पछी क्रमबद्धपर्यायनी वातो करता शीख्या छे, पण तेनुं ध्येय क्यां जाय
छे ने ते समजनारनी दशा केवी होय ते जाणता नथी, एटले तेओ पण भ्रमणामां ज रहे छे.
“आपणे निमित्त थईने परनी अवस्थामां फेरफार करी दईए” एम केटलाक अज्ञानीओ माने छे तेओ
पण मूढ छे.
प्रश्न:– जो एम छे, तो पचीस माणसने जमवानुं कहीने पछी बेसी रहे तो शुं एनी मेळे रसोई वगेरे
थई जशे!!
उत्तर:– भाई, आ तो अंर्तद्रष्टिनी ऊंडी वात छे, एम अद्धरथी बेसी जाय एवी आ वात नथी. जेने
जमवानुं कहेवानो विकल्प आव्यो, ते कांई वीतराग नथी, एटले तेने विकल्प आव्या वगर रहेशे नहि; परंतु
जीवने विकल्प आवे तो पण त्यां वस्तुमां क्रमबद्धपणे जे अवस्था थवानी छे तेम ज थाय छे. आ जीव विकल्प
करे छतां सामी वस्तुमां तेवी अवस्था न पण थाय; माटे विकल्पने लीधे बहारनुं कार्य थाय छे–एम नथी. अने
विकल्प थाय तेना उपर पण ज्ञानीनी द्रष्टिनुं जोर नथी.
[१०६] ‘ज्ञानी शुं करे छे’–ते अंर्तद्रष्टि विना ओळखाय नहि.
प्रश्न:– शरीरमां रोग थवो के मटवो ते बधी अजीवनी क्रमबद्धपर्याय छे–एम ज्ञानी जाणे छे, छतां पण ते
दवा तो करे छे, खाय–पीये–बधुं करे छे!
उत्तर:– अरे मूढ! तने ज्ञायकभावनी खबर नथी एटले तारी बाह्यद्रष्टिथी तने ज्ञानी ए बधुं करता
देखाय छे, पण ज्ञानी तो पोताना ज्ञायकस्वभाव उपरनी द्रष्टिथी ज्ञायकभावमां ज तन्मयपणे परिणमी रह्या छे,
रागमां पण तन्मय थईने ते परिणमता नथी, ने परनी कर्ताबुद्धि तो तेने स्वप्ने पण रही नथी. अंर्तद्रष्टि
विना ज्ञानीना परिणमननी तने खबर नहि पडे. ज्ञानीने हजी पूर्ण वीतरागता थई नथी तेथी अस्थिरतामां
अमुक रागादि थाय छे, तेने ते जाणे छे, परंतु एकला रागने जाणवानी पण प्रधानता नथी. ज्ञायकने जाणवानी
मुख्यतापूर्वक रागने पण जाणे छे; अने अनंतानुबंधी रागादि तो तेने थता ज नथी, तेमज ज्ञायकद्रष्टिमां
स्वसन्मुख पुरुषार्थ पण चालु ज छे. स्वछंद पोषे एवा जीवोने माटे आ वात नथी.
[१०७] बे लीटीमां अद्भुत रचना!
अहो! बे लीटीनी टीकामां तो आचार्यदेवे जगतना जीव ने अजीव बधाय द्रव्योनी स्वतंत्रतानो नियम
मूकीने अद्भुत रचना करी छे. जीव पोताना क्रमबद्ध परिणामोथी ऊपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी; एवी
रीते अजीव पण पोतानां क्रमबद्धपरिणामोथी ऊपजतुं थकुं अजीव ज छे, जीव नथी. जीव ते अजीवनी पर्यायने
करे, के अजीव ते जीवनी पर्यायने करे, एम जे माने तेने जीव अजीवना भिन्नपणानी प्रतीत रहेती नथी एटले
के मिथ्याश्रद्धा थई जाय छे.
[१०८] अभाव छे त्यां ‘प्रभाव’ कई रीते पाडे?
प्रश्न:– एक बीजानुं कांई करे तो नहि, पण परस्पर निमित्त थईने प्रभाव तो पाडे ने?
उत्तर:– कई रीते प्रभाव पाडे? –शुं प्रभाव पाडीने परनी अवस्थाने कोई फेरवी शके छे? कार्य थयुं तेमां
निमित्तनो तो अभाव छे तो तेणे प्रभाव कई रीते पाडयो? जीव पोताना स्वद्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावनी अपेक्षाए
सत् छे, पण पर वस्तुना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावनी अपेक्षाए ते असत् छे, एटले परद्रव्यनी अपेक्षाए ते अद्रव्य
छे, परक्षेत्रनी अपेक्षाए ते अक्षेत्र छे, परकाळनी अपेक्षाए ते अकाळ छे, ने पर वस्तुना भावनी अपेक्षाए ते
अभावरूप छे; तेमज आ जीवना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावनी अपेक्षाए बीजी बधी वस्तुओ अद्रव्य–अक्षेत्र–अकाळ
ने अभाव रूप छे. तो पछी कोई कोईनामां प्रभाव पाडे ए वात रहेती नथी. द्रव्य, क्षेत्र ने भावने तो स्वतंत्र
कहे, पण काळ एटले के स्वपर्याय ते परने लीधे(निमित्तने लीधे) थाय एम माने ते पण स्वतंत्र वस्तुस्वरूपने
समज्यो नथी. दरेक वस्तु समये