Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
• [५] •
प्रवचन पांचमुं
[वीर सं. २४८० आसो सुद एकम]
जुओ, आ क्रमबद्धपर्यायमां खरेखर तो ज्ञानस्वभावी आत्मानी वात छे; केम के क्रमबद्धपर्यायनो
जाणनार कोण? ‘ज्ञायक’ने जाण्या वगर क्रमबद्धपर्यायने जाणशे कोण? ज्ञायकस्वभाव तरफ वळीने
ज्ञायकभावपणे जे परिणम्यो ते ज्ञायक थयो एटले अकर्ता थयो, ने ते ज क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता थयो.
[११०] क्रमबद्धपर्याये ऊपजतो ज्ञायक परनो अकर्ता छे.
आ सर्वविशुद्धज्ञान–अधिकार छे; सर्वविशुद्धज्ञान एटले शुद्धज्ञायकभाव, ते परनो अकर्ता छे–ए वात
अहीं सिद्ध करवी छे.
पोताना ज्ञायकभावनी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजतो जीव परनो कर्ता नथी ने पर तेनुं कार्य नथी. पर्याय
नवी थाय छे ते अपेक्षाए ते “ऊपजे छे” एम कह्युं छे, पहेला ते पर्याय न हती ने नवी प्रगटी–ए रीते
पहेलानी अपेक्षाए, ते नवी ऊपजी कहेवाय छे, पण ते पर्यायने निरपेक्षपणे जुओ तो दरेक समयनी पर्याय ते
ते समयनुं सत् छे, तेनी उत्पत्ति के विनाश ते तो पहेला अने पछीना समयनी अपेक्षाए छे.
“द्रव्य विना पर्याय न थाय एटले के द्रव्य अने पर्याय ए बे चीज वगर कर्ताकर्मपणुं सिद्ध न थाय”–ए
दलील तो ज्यारे कर्ताकर्मपणुं सिद्ध करवुं होय त्यारे आवे; परंतु “पर्याय पण निरपेक्ष सत् छे”–एम सिद्ध करवुं
होय त्यां ए वात न आवे. एकेक समयनी पर्याय पण पोते पोताथी सत् छे, ‘द्रव्यथी नहि आलिंगित एवो
शुद्धपर्याय छे,’ पर्याय द्रव्यथी आलिंगित नथी एटले के निरपेक्ष छे. (जुओ, प्रवचनसार गा. १७२ टीका)
अहीं ए वात सिद्ध करवी छे के पोतानी निरपेक्ष क्रमबद्ध पर्यायपणे ऊपजतो जीव तेमां तद्रूप छे. द्रव्य पोतानी
पर्याय साथे तद्रूप–एकमेक छे, पण परनी पर्याय साथे तद्रूप नथी, तेथी तेने पर साथे कर्ताकर्मपणुं नथी; ए रीते
ज्ञायक आत्मा अकर्ता छे. आ कर्ताकर्म अधिकार नथी पण सर्वविशुद्धज्ञान–अधिकार छे, एटले अहीं ज्ञायकभाव
परनो अकर्ता छे–एवुं अकर्तापणुं सिद्ध करवुं छे.
जीव पोताना क्रमबद्ध परिणामोथी ऊपजतो थको जीव छे, –अजीव नथी. “ऊपजे छे”–कोण ऊपजे छे?
जीव पोते. जीव पोते जे परिणामपणे ऊपजे छे तेनी साथे तेने अनन्यपणुं–एकपणुं छे, अजीव साथे तेने
अनन्यपणु नथी माटे तेने अजीव साथे कार्यकारणपणुं नथी. दरेक द्रव्यने पोते जे परिणामपणे ऊपजे छे तेनी
साथे ज अनन्यपणुं छे, बीजाना परिणाम साथे तेने अनन्यपणुं नथी तेथी ते अकर्ता छे. आत्मा पण पोताना
ज्ञायकभावपणे ऊपजतो थको तेनी साथे तन्मय छे, ते पोताना ज्ञानपरिणाम साथे एकमेक छे, पण पर साथे
एकमेक नथी, माटे ते परनो अकर्ता छे. ज्ञायकपणे ऊपजता जीवने कर्म साथे एकपणुं नथी, माटे ते कर्मनो कर्ता
नथी; ज्ञायकद्रष्टिमां ते नवा कर्मबंधनने निमित्त पण थतो नथी माटे ते अकर्ता ज छे.
[१११] कर्मना कर्तापणानो व्यवहार कोने लागु पडे?
प्रश्न:– आ तो निश्चयनी वात छे, पण व्यवहारथी तो आत्मा कर्मनो कर्ता छे ने?
उत्तर:– ज्ञायकस्वरूप आत्मा उपर जेनी द्रष्टि नथी ने कर्म उपर द्रष्टि छे, एवो मिथ्याद्रष्टि जीव ज कर्मनो
व्यवहारे कर्ता छे–ए वात आचार्यदेव हवेनी गाथाओमां कहेशे. एटले जेने हजी कर्मनी साथेनो संबंध तोडीने
ज्ञायकभावरूपे नथी परिणमवुं पण कर्मनी साथे कर्ता–कर्मपणानो व्यवहार राखवो छे, ते तो मिथ्याद्रष्टि ज छे.
मिथ्यात्वादि जडकर्मना कर्तापणानो व्यवहार अज्ञानीने ज लागु पडे छे, ज्ञानीने नहि.
प्रश्न:– तो पछी ज्ञानीने क्यो व्यवहार?