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ज्ञायकभावपणे जे परिणम्यो ते ज्ञायक थयो एटले अकर्ता थयो, ने ते ज क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता थयो.
पहेलानी अपेक्षाए, ते नवी ऊपजी कहेवाय छे, पण ते पर्यायने निरपेक्षपणे जुओ तो दरेक समयनी पर्याय ते
ते समयनुं सत् छे, तेनी उत्पत्ति के विनाश ते तो पहेला अने पछीना समयनी अपेक्षाए छे.
होय त्यां ए वात न आवे. एकेक समयनी पर्याय पण पोते पोताथी सत् छे, ‘द्रव्यथी नहि आलिंगित एवो
शुद्धपर्याय छे,’ पर्याय द्रव्यथी आलिंगित नथी एटले के निरपेक्ष छे. (जुओ, प्रवचनसार गा. १७२ टीका)
अहीं ए वात सिद्ध करवी छे के पोतानी निरपेक्ष क्रमबद्ध पर्यायपणे ऊपजतो जीव तेमां तद्रूप छे. द्रव्य पोतानी
पर्याय साथे तद्रूप–एकमेक छे, पण परनी पर्याय साथे तद्रूप नथी, तेथी तेने पर साथे कर्ताकर्मपणुं नथी; ए रीते
ज्ञायक आत्मा अकर्ता छे. आ कर्ताकर्म अधिकार नथी पण सर्वविशुद्धज्ञान–अधिकार छे, एटले अहीं ज्ञायकभाव
परनो अकर्ता छे–एवुं अकर्तापणुं सिद्ध करवुं छे.
अनन्यपणु नथी माटे तेने अजीव साथे कार्यकारणपणुं नथी. दरेक द्रव्यने पोते जे परिणामपणे ऊपजे छे तेनी
साथे ज अनन्यपणुं छे, बीजाना परिणाम साथे तेने अनन्यपणुं नथी तेथी ते अकर्ता छे. आत्मा पण पोताना
ज्ञायकभावपणे ऊपजतो थको तेनी साथे तन्मय छे, ते पोताना ज्ञानपरिणाम साथे एकमेक छे, पण पर साथे
एकमेक नथी, माटे ते परनो अकर्ता छे. ज्ञायकपणे ऊपजता जीवने कर्म साथे एकपणुं नथी, माटे ते कर्मनो कर्ता
नथी; ज्ञायकद्रष्टिमां ते नवा कर्मबंधनने निमित्त पण थतो नथी माटे ते अकर्ता ज छे.
उत्तर:– ज्ञायकस्वरूप आत्मा उपर जेनी द्रष्टि नथी ने कर्म उपर द्रष्टि छे, एवो मिथ्याद्रष्टि जीव ज कर्मनो
ज्ञायकभावरूपे नथी परिणमवुं पण कर्मनी साथे कर्ता–कर्मपणानो व्यवहार राखवो छे, ते तो मिथ्याद्रष्टि ज छे.
मिथ्यात्वादि जडकर्मना कर्तापणानो व्यवहार अज्ञानीने ज लागु पडे छे, ज्ञानीने नहि.