Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ३३ :
उत्तर:– ज्ञानीना ज्ञानमां तो पोताना ज्ञायकस्वभावने जाणवानी मुख्यता छे, अने मुख्य ते निश्चय छे,
तेथी पोताना ज्ञायकस्वभावने जाणवो ते निश्चय छे; अने साधकदशामां वच्चे जे राग रह्यो छे तेने जाणवो ते
व्यवहार छे. ज्ञानीने आवा निश्चय–व्यवहार एक साथे वर्ते छे. परंतु–मिथ्यात्वादि कर्मप्रकृतिना बंधनमां निमित्त
थाय के तेना व्यवहार कर्ता थाय–एवो व्यवहार ज्ञानीने होतो ज नथी. तेने ज्ञायकद्रष्टिना परिणमनमां कर्म
साथेनो निमित्त–नैमित्तिक संबंध तूटी गयो छे. हवेनी गाथाओमां आचार्यदेव आ वात विस्तारथी समजावशे.
[११२] वस्तुनो कार्यकाळ.
कार्यकाळ कहो के क्रमबद्धपर्याय कहो; जीवनो जे कार्यकाळ छे तेमां ऊपजतो थको जीव तेनाथी अनन्य छे,
ने अजीवना कार्यकाळथी ते भिन्न छे. जीवनी जे पर्याय थाय तेमां अनन्यपणे जीवद्रव्य ऊपजे छे. ते वखते
जगतना बीजा जीव–अजीव द्रव्यो पण सौ पोतपोताना कार्यकाळे–क्रमबद्धपर्याये–ऊपजे छे, पण ते कोईनी साथे
आ जीवने एकता नथी.
तेमज, अजीवनो जे कार्यकाळ छे तेमां ऊपजतुं थकुं अजीव तेनाथी अनन्य छे, ने जीवना कार्यकाळथी ते
भिन्न छे. अजीवना एकेक परमाणुनी जे पर्याय थाय तेमां अनन्यपणे ते परमाणु ऊपजे छे, तेने बीजानी
साथे एकता नथी. शरीर चाले, भाषा बोलाय ईत्यादि पर्यायपणे अजीव ऊपजे छे, ते अजीवनी क्रमबद्धपर्याय
छे, जीवने लीधे ते पर्याय थती नथी.
[११३] निषेध कोनो? निमित्तनो, के निमित्ताधीन द्रष्टिनो?
प्रश्न:– आप क्रमबद्धपर्याय होवानुं कहो छो तेमां निमित्तनो तो निषेध थई जाय छे? क्रमबद्धपर्याय
मानतां निमित्तनो सर्वथा निषेध नथी थई जतो, पण निमित्ताधीनद्रष्टिनो निषेध थई जाय छे. पर्यायमां अमुक
निमित्त–नैमित्तिक संबंध भले हो, पण अहीं ज्ञायकद्रष्टिमां तेनी वात नथी. क्रमबद्धपर्याय मानतां निमित्त
होवानो सर्वथा निषेध पण नथी थतो, तेमज निमित्तने लीधे कांई थाय–ए वात पण रहेती नथी. निमित्त
पदार्थ तेना क्रमबद्धस्वकाळे तेनामां ऊपजे छे, ने नैमित्तिकपदार्थ पण पोताना स्वकाळे पोतामां ऊपजे छे, आम
बन्नेनुं भिन्नभिन्न पोतपोतामां परिणमन थई ज रह्युं छे. “उपादानमां पर्याय थवानी योग्यता तो छे, पण
जो निमित्त आवे तो थाय ने न आवे तो न थाय”–ए मान्यता मिथ्याद्रष्टिनी छे. पर्याय थवानी योग्यता होय
ने न थाय एम बने ज नहि. तेमज अहीं क्रमबद्धपर्याय थवानो काळ होय ने ते वखते तेने योग्य निमित्त न
होय–एम पण बने ज नहि. जो के निमित्त ते परद्रव्य छे, ते कांई उपादानने आधीन नथी, परंतु ते परद्रव्य
तेना पोताने माटे तो उपादान छे, ने तेनुं पण क्रमबद्ध परिणमन थई ज रह्यु छे. अहीं आत्माने पोताना
ज्ञायकस्वभावसन्मुखना क्रमबद्धपरिणमनथी छट्ठा–सातमा गुणस्थाननी भावलिंगी मुनिदशा प्रगटे, त्यां
निमित्तमां द्रव्यलिंग तरीके शरीरनी दिगंबरदशा ज होय–एवो तेनो क्रम छे. कोई मुनिराज ध्यानमां बेठा होय
ने कोई अज्ञानी आवीने तेमना शरीर उपर वस्त्र नांखी जाय तो ते कांई परिग्रह नथी, ते तो उपसर्ग छे.
सम्यग्दर्शन थयुं त्यां कुदेवादिने माने एवुं क्रमबद्धपर्यायमां होय नहि, तेमज मुनिदशा थाय त्यां वस्त्र–पात्र राखे
एवुं क्रमबद्धपर्यायमां होय नहि, ए प्रमाणे बधी भूमिकाने योग्य समजी लेवुं.
[११४] योग्यता अने निमित्त. (बधा निमित्तो धर्मास्तिकायवत् छे.)
‘ईष्टोपदेश’मां (गा. ३५मां) कह्युं छे के कोई पण कार्य थवामां वास्तविकपणे तेनी पोतानी योग्यता ज
साक्षात् साधक छे, एटले के दरेक वस्तुनी पोतानी योग्यताथी ज कार्य थाय छे, त्यां बीजी चीज तो
धर्मास्तिकायवत् निमित्तमात्र छे. जेम पोतानी योग्यताथी स्वयं गति करनारा पदार्थोने धर्मास्तिकाय तो पड्युं
पाथर्युं निमित्त छे, ते कांई कोईने गति करावतुं नथी; तेम दरेक वस्तुमां पोतानी क्रमबद्धपर्यायनी योग्यताथी ज
कार्य थाय छे, तेमां जगतनी बीजी चीज तो फक्त धर्मास्तिकायवत् छे. जुओ, आ ईष्ट–उपदेश. आवो
स्वाधीनतानो उपदेश ते ज ईष्ट छे, हितकारी छे, यथार्थ छे. आनाथी विपरीत मान्यतानो उपदेश होय तो ते
ईष्ट–उपदेश नथी पण अनीष्ट छे. जैनदर्शननो उपदेश कहो....आत्माना हितनो उपदेश कहो....ईष्ट उपदेश
कहो....वाजबी उपदेश कहो....सत्यनो उपदेश कहो....अनेकान्तनो उपदेश कहो के सर्वज्ञ भगवाननो उपदेश
कहो....ते आ छे के: जीव ने अजीव दरेक वस्तुमां