Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
सोनानी जे अवस्था थई तेनो सोनी अकर्ता छे, छतां तेने निमित्त कर्ता कहेवो ते व्यवहार छे. जे कर्ता
छे तेने कर्ता जाणवो ते निश्चय, अने अकर्ताने कर्ता कहेवो ते व्यवहार छे. जीव पोतानी क्रमबद्ध अवस्थापणे
ऊपजतो थको जीव ज छे, ने अजीव पोतानी क्रमबद्ध अवस्थापणे ऊपजतुं थकुं अजीव ज छे. जीव ते अजीवनी
अवस्थानो अकर्ता छे, ने अजीव ते जीवनी अवस्थानुं अकर्ता छे. आ रीते जेम जीव अजीवने परस्पर कर्तापणुं
नथी तेम तेमने परस्पर कर्मपणुं, करणपणुं, संप्रदानपणुं, अपादानपणुं के अधिकरणपणुं पण नथी. मात्र
निमित्तपणाथी तेमने एकबीजाना कर्ता, कर्म, करण वगेरे कहेवा ते व्यवहार छे. निमित्तथी कर्ता एटले खरेखर
अकर्ता; ने अकर्ताने कर्ता कहेवो ते व्यवहार. निश्चयथी अकर्ता थयो त्यारे व्यवहारनुं ज्ञान साचुं थयुं.
ज्ञायकस्वभाव तरफ वळीने जे ज्ञाता थयो ते रागने राग तरीके जाणे छे पण ते रागमां ज्ञाननी एकता नथी
करतो, माटे ते ज्ञाता तो रागनो पण अकर्ता छे.
[११९] क्रमबद्धपर्यायनुं मूळियुं.
जुओ, आ क्रमबद्धपर्यायमां खरेखर तो ज्ञानस्वभावी आत्मानी वात छे; केम के क्रमबद्धपर्यायनो
जाणनार कोण? ‘ज्ञायक’ने जाण्या वगर क्रमबद्धपर्यायने जाणशे कोण? ज्ञायकस्वभाव तरफ वळीने
ज्ञायकभावपणे जे परिणम्यो ते ज्ञायक थयो, एटले अकर्ता थयो, ने ते ज क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता थयो. ‘ज्ञायक’
कहो के ‘अकर्ता’ कहो;–ज्ञायक परनो अकर्ता छे. ज्ञायक स्वभाव तरफ वळीने आवुं भेद ज्ञान करे, पछी
साधकदशामां भूमिका प्रमाणे जे व्यवहार रह्यो तेने ज्ञानी जाणे छे, एटले ‘व्यवहारनय ते काळे जाणेलो
प्रयोजनवान छे’ ए वात तेने लागु पडे छे. मिथ्याद्रष्टि तो ज्ञायकने पण नथी जाणतो, अने व्यवहारनुं पण
तेने साचुं ज्ञान नथी.
द्रव्य पोतानी जे क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजे छे ते पर्याय ज तेनुं कार्य छे, बीजुं तेनुं कार्य नथी. आ रीते,
एक कर्ताना बे कार्य होता नथी, तेथी जीव अजीवने परस्पर कार्यकारणपणुं नथी. निगोदथी मांडीने सिद्ध
सुधीना बधा जीवो, एक परमाणुथी मांडीने अचेतनमहास्कंध, तेमज बीजा चार अजीव द्रव्यो, ते सर्वेने
पोतपोताना ते काळना क्रमबद्ध ऊपजता परिणाम साथे तद्रूपपणुं छे. पर्यायो अनादि–अनंत क्रमबद्ध होवा छतां
तेमां वर्तमानपणे तो एक पर्याय ज वर्ते छे, अने ते ते समये वर्तती पर्यायमां द्रव्य तद्रूपपणे वर्ती रह्युं छे. वस्तु
तो ज्यारे जुओ त्यारे वर्तमान छे, ज्यारे जुओ त्यारे वर्तमान ते समयनी पर्याय सत् छे, ते वर्तमान पहेला
थई गयेली पर्यायो भूतकाळमां छे ने पछी थनारी पर्यायो भविष्यमां छे; वर्तमान पर्याय एक समय पण
आघीपाछी थईने भूत के भविष्यनी पर्यायरूप थई जती नथी; तेमज भविष्यनी पर्याय भूतकाळनी पर्यायरूप
थती नथी के भूतकाळनी पर्याय भविष्यनी पर्यायरूप थई जती नथी. अनादिअनंत प्रवाहक्रममां दरेक पर्याय
पोतपोताना स्थाने ज प्रकाशे छे, ए रीते पर्यायोनुं क्रमबद्धपणुं छे,–आ वात प्रवचनसारनी गा. ९९मां
प्रदेशोना विस्तार–क्रमनुं द्रष्टांत आपीने अलौकिक रीते समजावी छे.
[१२०] क्रमबद्धपर्यायमां शुं शुं आव्युं?
प्रश्न:– ‘क्रमबद्ध’ कहेतां भूतकाळनी पर्याय भविष्यरूप, के भविष्यनी पर्याय भूतकाळरूप न थाय–ए
वात तो बराबर, पण आ समये आ पर्याय आवी ज थशे–ए वात आ क्रमबद्धपर्यायमां क्यां आवी?
उत्तर:– क्रमबद्धपर्यायमां जे समयना जे परिणाम छे ते सत् छे, अने ते परिणामनुं स्वरूप केवुं होय ते
पण तेमां भेगुं ज आवी जाय छे. ‘हुं ज्ञायक छुं,’ तो मारा ज्ञेयपणे समस्त पदार्थोना त्रणे काळना परिणाम
क्रमबद्ध सत् छे–एवो निर्णय तेमां थई जाय छे. जो आम न माने तो तेणे पोताना ज्ञायकस्वभावना पूरा
सामर्थ्यने ज नथी मान्युं. हुं ज्ञायक छुं ने पदार्थोमां क्रमबद्धपर्याय थाय छे–ए वात जेने नथी बेसती तेने
निश्चय–व्यवहारना के निमित्त उपादान वगेरेना बधा झघडा ऊभा थाय छे, पण जो आ निर्णय करे तो बधा
झघडा भागी जाय, ने भूल भांगीने मुक्ति थया विना रहे नहि.
[१२१] ज्यां रुचि त्यां जोर.
“निमित्तथी ने व्यवहारथी तो आत्मा कर्मनो कर्ता छे ने!–एम अज्ञानी जोर आपे छे; पण भाई! तारुं
जोर ऊंधुंं छे; तुं कर्म तरफ जोर आपे छे पण ‘आत्मा अकर्ता छे–ज्ञान ज छे’ एम ज्ञायक उपर जोर केम नथी
आपतो? जेने ज्ञायकनी रुचि नथी ने रागनी रुचि छे ते ज कर्मना कर्तापणा उपर जोर आपे छे.