Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ३७ :
क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय करनार काळना प्रवाह सामे नथी जोतो, पण ज्ञायकस्वभाव सामे जुए
छे. केम के वस्तुनी क्रमबद्धपर्याय कांई काळने लीधे थती नथी. काळद्रव्य तो परिणमनमां बधाय द्रव्योने एक
साथे निमित्त छे, छतां कोई परमाणु स्कंधमां जोडाय, ते ज वखते बीजो तेमांथी छूटो पडे, एक जीव सम्यग्दर्शन
पामे ने बीजो जीव ते ज वखते केवळज्ञान पामी जाय, –ए प्रमाणे जीव–अजीव द्रव्योमां पोतपोतानी योग्यता
प्रमाणे भिन्नभिन्न अवस्थारूपे क्रमबद्ध परिणाम थाय छे. माटे, पोताना ज्ञानपरिणामनो प्रवाह ज्यांथी वहे
छे–एवा ज्ञायकस्वभाव उपर द्रष्टि राखीने ज क्रमबद्धपर्यायनुं यथार्थज्ञान थाय छे.
[१२२] तद्रूप अने कद्रूप; (ज्ञानीने दिवाळी, अज्ञानीने होळी.)
क्रमबद्धपर्यायपणे परिणमतुं द्रव्य पोताना परिणाम साथे ‘तद्रूप’ छे; एम न मानतां बीजो कर्ता
माने तो तेणे द्रव्य साथे पर्यायने तद्रूप न मानी पण पर साथे तद्रूप मानी तेथी तेनी मान्यता ‘कद्रूप’ थई–
मिथ्या थई. पर्यायने अंतरमां वाळीने ज्ञायकभाव साथे तद्रूप करवी जोईए, तेने बदले पर साथे तद्रूप
मानीने कद्रूप करी, तेणे दिवाळीने बदले होळी करी. जेम होळीने बदले दिवाळीना तहेवारमां मोढा उपर मस
चोपडीने मेलुं करे तो ते मूरख कहेवाय. तेम ‘दि....वाळी’ एटले पोतानी निर्मळ स्वपर्याय, तेमां पोते तद्रूप
थवुं जोईए तेने बदले अज्ञानी पर साथे पोताने तद्रूपता मानीने पोतानी पर्यायने मलिन करे छे एटले ते
दि.....वाळीने बदले पोताना गुणनी होळी करे छे. भाई, ‘दि’ एटले स्वकाळनी पर्याय तेने ‘वाळ’ तारा
आत्मामां,–तो तारा घरे दिवाळीना दीवा प्रगटे एटले के सम्यग्ज्ञानना दीवडा प्रगटे ने मिथ्यात्वनी होळी
मटे. स्वकाळनी पर्यायने अंतरमां न वाळतां पर साथे एकपणुं मानीने, ते ऊंधी मान्यतामां अज्ञानी
पोताना गुणने होमी दे छे एटले तेने पोताना गुणनी होळी थाय छे–गुणनी निर्मळदशा प्रगटवाने बदले
मलिनदशा प्रगटे छे; तेमां आत्मानी शोभा नथी.
स्वभावसन्मुख थईने क्रमबद्ध आवेला निर्मळ स्वकाळ साथे तद्रूपता धारण करे तेमां ज आत्मानी
शोभा ने प्रभुता छे. पोतपोतानी पर्याय साथे तद्रूपता धारण करे तेमां ज दरेक द्रव्यनी प्रभुता छे, जो तेनी
पर्यायमां बीजो तद्रूप थईने तेने करे तो तेमां द्रव्यनी प्रभुता रहेती नथी; अथवा आत्मा पोते पर साथे तद्रूपता
मानीने तेनो कर्ता थवा जाय तो तेमां पण पोतानी के परनी प्रभुता रहेती नथी. परनो कर्ता थवा जाय ते
पोतानी प्रभुताने भूले छे. क्रमबद्धपर्यायनुं ज्ञातापणुं न मानतां तेमां आडुंअवळुं करवानुं माने तो ते जीव
पोताना ज्ञाताभाव साथे तद्रूप न रहेतां, मिथ्याद्रष्टि कद्रूप थई जाय छे.
[१२३] –आ छे जैनशासननो सार!
अहो, दरेक द्रव्य पोते ज पोतानी क्रमबद्धपर्यायपणे परिणमतुं थकुं, ते ते परिणाममां तद्रूप थईने तेने
करे छे, पण बीजाने करतुं नथी, –आ एक सिद्धांतमां छए द्रव्योना त्रणे काळना परिणमनना उकेलनी चावी
आवी जाय छे. हुं ज्ञायक, ने पदार्थोमां स्वतंत्र क्रमबद्ध परिणमन–बस! आमां बधो सार आवी गयो. पोताना
ज्ञायकस्वभावनो ने पदार्थोना क्रमबद्धपरिणामनी स्वतंत्रतानो निर्णय करीने, पोते पोताना ज्ञायकस्वभावमां
अभेद थईने परिणम्यो, त्यां पोते ज्ञायक ज रह्यो ने परनो अकर्ता थयो, तेनुं ज्ञान, रागादिथी छूटुं पडीने
‘सर्वविशुद्ध’ थयुं. आनुं नाम जैनशासन, ने आनुं नाम धर्म.
‘योग्यताने ज’ कार्यनी साक्षात्साधक कहीने ईष्टोपदेशमां स्वतंत्रतानो अलौकिक उपदेश कर्यो छे.
‘ईष्टोपदेश’ने ‘जैननुं उपनिषद’ पण कहे छे. खरेखर, वस्तुनी स्वतंत्रता बतावीने आत्माने पोताना ज्ञायक
स्वभाव तरफ लई जाय–ते ज ईष्ट–उपदेश छे,–अने ते ज जैनधर्मनो मर्म छे तेथी जैननुं उपनिषद छे.
[१२४] ‘–विरला बूझे कोई!’
आ वात समज्या वगर उपादान–निमित्तनुं पण यथार्थज्ञान न थाय. उपादान अने निमित्त बंने चीजो
छे खरी, तेनुं ज्ञान कराववा माटे शास्त्रोमां तेनुं वर्णन कर्युं, त्यां अज्ञानी पोतानी ऊंधी द्रष्टिथी उपादान–
निमित्तना नामे ऊलटो स्व–परनी एकताबुद्धि पोषे छे; “जुओ, शास्त्रमां निमित्त तो कह्युं छे ने? बे कारण तो
कह्या छे ने?”–एम कहीने ऊलटो स्व–परनी एकताबुद्धि घूंटे छे. पं. बनारसीदासजी कहे छे के–