Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 46 of 69

background image
: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ३९ :
• [६] •
प्रवचन छट्ठुं
[वीर सं. २४८० आसो सुद बीज]
भाई, पंचपरमेष्ठी भगवान ज अमारा ‘पंच’ छे. ज्ञायकस्वभाव अने क्रमबद्धपर्यायनुं आ जे
वस्तुस्वरूप कहेवाय छे ते ज प्रमाणे अनादिथी पंच परमेष्ठी भगवंतो कहेता आव्या छे, अने
महाविदेहमां बिराजता सीमंधरादि भगवंतो अत्यारे पण ए ज उपदेश आपी रह्या छे. आ सिवाय
अज्ञानीओ बीजुं विपरीत माने तो भले माने, पण अहीं तो पंच परमेष्ठी भगवंतोने पंच तरीके
राखीने आ वात कहेवाय छे.
[१२८] ज्ञायक वस्तुस्वरूप, अने अकर्तापणुं.
आ ‘सर्वविशुद्ध ज्ञान–अधिकार’ ने ‘शुद्धात्म–द्रव्य–अधिकार’ पण कहेवाय छे. ज्ञायकस्वभावी शुद्ध
आत्मद्रव्यनुं स्वरूप शुं छे ते आचार्यदेव ओळखावे छे. आत्मानो स्वभाव तो ज्ञायक छे, जाणनार छे; ते
ज्ञायकस्वभाव, नथी तो परनो कर्ता, के नथी रागनो कर्ता. कर्ता थईने परनी अवस्था उपजावे एवुं तो ज्ञायकनुं
स्वरूप नथी, तेमज रागमां कर्ताबुद्धि पण तेनो स्वभाव नथी, राग पण तेना ज्ञेयपणे ज छे. रागमां तन्मय
थईने नहि, पण रागथी अधिक रहीने–भिन्न रहीने ज्ञायक तेने जाणे छे. आवुं ज्ञायक–वस्तुस्वरूप समजे तो
जाणपणाना ने कर्तापणाना बधा गर्व ऊडी जाय.
अहीं जीवने समजाववुं छे के तुं ज्ञायक छो, परनो अकर्ता छो. ‘ज्ञायक’ ज्ञाता–द्रष्टा परिणाम सिवाय
बीजुं शुं करे? आवा पोताना ज्ञायकस्वभावने जाणीने, स्व–सन्मुख निर्मळ ज्ञानपरिणामे जे परिणम्यो ते
ज्ञानी एम जाणे छे के समये समये मारा ज्ञानना जे निर्मळ क्रमबद्ध परिणाम थाय छे तेमां ज हुं तन्मय छुं,
रागमां के परमां हुं तन्मय नथी माटे तेनो हुं अकर्ता छुं.
अजीव पण पोताना क्रमबद्ध थता जड परिणाम साथे तन्मय छे ने बीजा साथे तन्मय नथी, तेथी ते
अजीव पण परनुं अकर्ता छे; परंतु अहीं तेनी मुख्यता नथी अहीं तो जीवनुं अकर्तापणुं सिद्ध करवुं छे; जीवने
आ वात समजाववी छे.
[१२९] द्रष्टि पलटावीने सम्यग्दर्शन प्रगट करे ते ज आ उपदेशनुं रहस्य समज्यो छे.
आत्माना ज्ञायकभावनी आ वात छे; आ समजे तो अपूर्व सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान थाय, तेमज
तेनी साथे अतीन्द्रिय आनंदना अंशनुं वेदन थाय. द्रष्टि पलटावे त्यारे जीवने आ वात समजाय तेवी छे. आ
वस्तु मात्र वात करवा माटे नथी, पण समजीने अंतरमां द्रष्टि पलटाववा माटे आ उपदेश छे. क्रमबद्धपर्याय तो
अजीवमां पण थाय छे, पण तेने कांई एम नथी समजाववुं के तुं अकर्ता छो माटे द्रष्टि पलटाव! अहीं तो जीवने
समजाववुं छे. अज्ञानी जीव पोताना ज्ञायकस्वभावने भूलीने, ‘हुं परनो कर्ता’ एम मानी रह्यो छे; तेने अहीं
समजावे छे के भाई! तुं तो ज्ञायक छो, जीव ने अजीव बधाय द्रव्यो पोतपोतानी क्रमबद्धपर्यायमां परिणमी रह्या
छे, तुं तेनो ज्ञायक छो, पण कोई परनो कर्ता तुं नथी. ‘हुं ज्ञायकभाव, परनो