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महाविदेहमां बिराजता सीमंधरादि भगवंतो अत्यारे पण ए ज उपदेश आपी रह्या छे. आ सिवाय
अज्ञानीओ बीजुं विपरीत माने तो भले माने, पण अहीं तो पंच परमेष्ठी भगवंतोने पंच तरीके
राखीने आ वात कहेवाय छे.
ज्ञायकस्वभाव, नथी तो परनो कर्ता, के नथी रागनो कर्ता. कर्ता थईने परनी अवस्था उपजावे एवुं तो ज्ञायकनुं
स्वरूप नथी, तेमज रागमां कर्ताबुद्धि पण तेनो स्वभाव नथी, राग पण तेना ज्ञेयपणे ज छे. रागमां तन्मय
थईने नहि, पण रागथी अधिक रहीने–भिन्न रहीने ज्ञायक तेने जाणे छे. आवुं ज्ञायक–वस्तुस्वरूप समजे तो
जाणपणाना ने कर्तापणाना बधा गर्व ऊडी जाय.
ज्ञानी एम जाणे छे के समये समये मारा ज्ञानना जे निर्मळ क्रमबद्ध परिणाम थाय छे तेमां ज हुं तन्मय छुं,
रागमां के परमां हुं तन्मय नथी माटे तेनो हुं अकर्ता छुं.
आ वात समजाववी छे.
वस्तु मात्र वात करवा माटे नथी, पण समजीने अंतरमां द्रष्टि पलटाववा माटे आ उपदेश छे. क्रमबद्धपर्याय तो
अजीवमां पण थाय छे, पण तेने कांई एम नथी समजाववुं के तुं अकर्ता छो माटे द्रष्टि पलटाव! अहीं तो जीवने
समजाववुं छे. अज्ञानी जीव पोताना ज्ञायकस्वभावने भूलीने, ‘हुं परनो कर्ता’ एम मानी रह्यो छे; तेने अहीं
समजावे छे के भाई! तुं तो ज्ञायक छो, जीव ने अजीव बधाय द्रव्यो पोतपोतानी क्रमबद्धपर्यायमां परिणमी रह्या
छे, तुं तेनो ज्ञायक छो, पण कोई परनो कर्ता तुं नथी. ‘हुं ज्ञायकभाव, परनो