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द्रष्टिनी दिशा स्व तरफ वाळे त्यारे ज क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय थाय छे, ने तेने पोतामां निर्मळपर्यायनो
क्रम शरू थई जाय छे. ‘मारी बधी पर्यायो क्रमबद्ध–क्रमसर थाय छे’ एम निर्णय करवा जतां, ते पर्यायोपणे
परिणमनारा एवा ज्ञायकद्रव्य तरफ द्रष्टि जाय छे. मारुं क्रमबद्धपरिणमन मारामां, ने परनुं क्रमबद्धपरिणमन
परमां, परना क्रममां हुं नहि, ने मारा क्रममां पर नहि,–आवुं यथार्थ भेदज्ञान करतां, ‘हुं परनुं कांई करुं’ एवी
द्रष्टि छूटी जाय छे, ने ज्ञायकस्वभावसन्मुख द्रष्टि थाय छे. ते स्वसन्मुखद्रष्टिनुं परिणमन थतां ज्ञान, आनंद,
वीर्य वगेरे बधा गुणोमां पण स्वाश्रये अंशे निर्मळ परिणमन थयुं.
केवळज्ञान त्रणकाळनी समस्तपर्यायोने न जाणे तो ते केवळज्ञान शेनुं? अने जो पदार्थोनी त्रणेकाळनी बधी
पर्यायो व्यवस्थित–क्रमबद्ध ज न होय तो केवळीभगवाने जोयुं शुं?
चित्स्वभावाय भावाय, सर्वभावांतरच्छिदे।।
छे एटले स्वसन्मुख ज्ञानक्रिया वडे ज ते प्रकाशमान छे, रागवडे के व्यवहारना अवलंबन वडे ते प्रकाशतो नथी.
वळी कह्युं के ते ज्ञानस्वभावरूप वस्तु छे, ने पोताथी अन्य समस्त भावोने पण जाणनार छे. आ रीते, जीवनो
ज्ञानस्वभाव छे ने ते त्रणेकाळनी क्रमबद्धपर्यायोने जाणे छे–ए वात पण तेमां आवी गई.
जाणे–देखे छे, अने लोकालोकने तो व्यवहारथी जाणे–देखे छे; तथा समयसारनी गा. ११ मां व्यवहारने
अभूतार्थ कह्यो छे. माटे ‘सर्वज्ञ भगवाने त्रणकाळनी बधी पर्यायो जाणी छे ने ते प्रमाणे ज पदार्थोमां क्रमबद्ध
परिणमन थाय छे’ ए वात बराबर नथी! (–आवो प्रश्न छे.)
जाणे छे–एम कह्युं, त्यां ज्ञानमां जाणवानी शक्ति कांई व्यवहारथी नथी, जाणवानी शक्ति तो निश्चयथी छे, पण
पर साथे एकमेक थईने–अथवा तो परनी सन्मुख थईने केवळज्ञान तेने नथी जाणतुं तेथी व्यवहार कह्यो छे.
स्वने जाणतां पोतामां एकमेक थईने जाणे छे. तेथी स्वप्रकाशकपणाने निश्चय कह्यो, ने परमां एकमेक नथी थतुं
माटे परप्रकाशने व्यवहार कह्यो छे. पण ज्ञानमां स्व–परप्रकाशक शक्ति छे ते तो निश्चयथी ज छे, ते कांई
व्यवहार नथी. ‘
निश्चयथी एम ज छे. ज्ञानमां स्व–परने जाणवानी शक्ति छे ते कांई व्यवहार के अभूतार्थ नथी. अरे! स्वछंदे
कहेली पोतानी वातने सिद्ध करवा, ज्ञानस्वभावना सामर्थ्यने पण अभूतार्थ कहीने ऊडाडे, अने वळी
कुंदकुंदभगवान जेवा आचार्योना नामे ते वात करे–ए तो मूढ जीवोनो मोटो गजब छे!