Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: ४० : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
अकर्ता, मारी ज्ञानपर्यायमां क्रमबद्ध परिणमुं छुं’–एम समजीने स्वद्रव्यनी द्रष्टि करतां सम्यग्दर्शन थाय छे.
द्रष्टिनी दिशा स्व तरफ वाळे त्यारे ज क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय थाय छे, ने तेने पोतामां निर्मळपर्यायनो
क्रम शरू थई जाय छे. ‘मारी बधी पर्यायो क्रमबद्ध–क्रमसर थाय छे’ एम निर्णय करवा जतां, ते पर्यायोपणे
परिणमनारा एवा ज्ञायकद्रव्य तरफ द्रष्टि जाय छे. मारुं क्रमबद्धपरिणमन मारामां, ने परनुं क्रमबद्धपरिणमन
परमां, परना क्रममां हुं नहि, ने मारा क्रममां पर नहि,–आवुं यथार्थ भेदज्ञान करतां, ‘हुं परनुं कांई करुं’ एवी
द्रष्टि छूटी जाय छे, ने ज्ञायकस्वभावसन्मुख द्रष्टि थाय छे. ते स्वसन्मुखद्रष्टिनुं परिणमन थतां ज्ञान, आनंद,
वीर्य वगेरे बधा गुणोमां पण स्वाश्रये अंशे निर्मळ परिणमन थयुं.
[१३०] जैनधर्मनी मूळ वात.
पंडित के त्यागी नाम धरावनारा केटलाकने तो हजी ‘सर्वज्ञ’नी तेमज ‘क्रमबद्धपर्याय’नी पण श्रद्धा
नथी. परंतु आ तो जैनधर्मनी मूळ वात छे, आनो निर्णय कर्या वगर साचुं जैनपणुं होय ज नहि. जो
केवळज्ञान त्रणकाळनी समस्तपर्यायोने न जाणे तो ते केवळज्ञान शेनुं? अने जो पदार्थोनी त्रणेकाळनी बधी
पर्यायो व्यवस्थित–क्रमबद्ध ज न होय तो केवळीभगवाने जोयुं शुं?
[१३१]सर्व भावांतरच्छिदे
समयसारनुं मांगलिक करतां पहेला ज कलशमां आचार्यदेवे कह्युं के–
नमः समयसाराय, स्वानुभूत्या चकासते।
चित्स्वभावाय भावाय, सर्वभावांतरच्छिदे।।
१।।
‘समयसार’ने एटले के शुद्ध आत्माने नमस्कार करतां आचार्यदेव कहे छे के हुं साधक छुं तेथी मारुं
परिणमन अंतरमां नमे छे, हुं शुद्धात्मामां परिणमुं छुं. –केवो छे शुद्धात्मा? प्रथम तो स्वानुभूतिथी प्रकाशमान
छे एटले स्वसन्मुख ज्ञानक्रिया वडे ज ते प्रकाशमान छे, रागवडे के व्यवहारना अवलंबन वडे ते प्रकाशतो नथी.
वळी कह्युं के ते ज्ञानस्वभावरूप वस्तु छे, ने पोताथी अन्य समस्त भावोने पण जाणनार छे. आ रीते, जीवनो
ज्ञानस्वभाव छे ने ते त्रणेकाळनी क्रमबद्धपर्यायोने जाणे छे–ए वात पण तेमां आवी गई.
[१३२] ज्ञानमां परने जाणवानी शक्ति छे ते कांई अभूतार्थ नथी.
प्रश्न:– जीवनो ज्ञानस्वभाव छे, ने केवळज्ञान थतां ते बधा पदार्थोनी त्रणेकाळनी क्रमबद्ध पर्यायोने जाणे
छे–एम आप कहो छो, पण नियमसारनी गा. १५९ तथा १६६ मां कह्युं छे के केवळी भगवान निश्चयथी स्वने
जाणे–देखे छे, अने लोकालोकने तो व्यवहारथी जाणे–देखे छे; तथा समयसारनी गा. ११ मां व्यवहारने
अभूतार्थ कह्यो छे. माटे ‘सर्वज्ञ भगवाने त्रणकाळनी बधी पर्यायो जाणी छे ने ते प्रमाणे ज पदार्थोमां क्रमबद्ध
परिणमन थाय छे’ ए वात बराबर नथी! (–आवो प्रश्न छे.)
उत्तर:– भाई, तने सर्वज्ञनी पण श्रद्धा न रही? शास्त्रोनी ओथे तुं तारी ऊंधी द्रष्टिने पोषवा मांगे छे,
पण तने सर्वज्ञनी श्रद्धा वगर, शास्त्रना एक अक्षरनो पण सवळो अर्थ नहि समजाय. ज्ञान परने व्यवहारे
जाणे छे–एम कह्युं, त्यां ज्ञानमां जाणवानी शक्ति कांई व्यवहारथी नथी, जाणवानी शक्ति तो निश्चयथी छे, पण
पर साथे एकमेक थईने–अथवा तो परनी सन्मुख थईने केवळज्ञान तेने नथी जाणतुं तेथी व्यवहार कह्यो छे.
स्वने जाणतां पोतामां एकमेक थईने जाणे छे. तेथी स्वप्रकाशकपणाने निश्चय कह्यो, ने परमां एकमेक नथी थतुं
माटे परप्रकाशने व्यवहार कह्यो छे. पण ज्ञानमां स्व–परप्रकाशक शक्ति छे ते तो निश्चयथी ज छे, ते कांई
व्यवहार नथी. ‘
सर्व भावांतरच्छिदे’–एम कह्युं तेमां शुं बाकी रही गयुं? –ते कांई व्यवहारथी नथी कह्युं. वळी
१६० मी गाथामां ‘सो सव्वणाणदरिसी××× अर्थात् आत्मा पोते ज ज्ञान होवाने लीधे विश्वने (सर्व
पदार्थोने) सामान्य–विशेष पणे जाणवाना स्वभाववाळो छे’–एम कह्युं, ते कांई व्यवहारथी नथी कह्युं परंतु
निश्चयथी एम ज छे. ज्ञानमां स्व–परने जाणवानी शक्ति छे ते कांई व्यवहार के अभूतार्थ नथी. अरे! स्वछंदे
कहेली पोतानी वातने सिद्ध करवा, ज्ञानस्वभावना सामर्थ्यने पण अभूतार्थ कहीने ऊडाडे, अने वळी
कुंदकुंदभगवान जेवा आचार्योना नामे ते वात करे–ए तो मूढ जीवोनो मोटो गजब छे!