: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ४१ :
अने तेओनी एवी वातने जे स्वीकारे छे तेने पण खरेखर सर्वज्ञदेवनी श्रद्धा नथी.
[१३३] सर्वज्ञ–स्वभावनो निर्णय करे तेने पुरुषार्थनी शंका रहेती नथी.
हवे, घणा जीवो ओघे ओघे (–निर्णयवगर) सर्वज्ञने मानता होय, तेने एम प्रश्न थाय छे के: जो सर्वज्ञ
भगवाने जोयुं ते प्रमाणे ज क्रमबद्धपर्याय थाय ने ते क्रममां फेरफार न थाय,–तो पछी जीवने पुरुषार्थ करवानुं
क्यां रह्युं? तो तेने कहे छे के हे भाई! तें तारा ज्ञान–स्वभावनो निर्णय कर्यो छे? –सर्वज्ञनो निर्णय कर्यो छे?
तुं तारा ज्ञानस्वभावनो ने सर्वज्ञनो निर्णय कर तो तने खबर पडशे के क्रमबद्धपर्यायमां पुरुषार्थ कई रीते आवे
छे? पुरुषार्थनुं यथार्थ स्वरूप ज हजी लोकोना समजवामां नथी आव्युं. अनादिथी परमां ने रागमां ज हुं–पणुं
मानीने मिथ्यात्वना अनंत दुःखनो अनुभव करी रह्यो छे, तेने बदले ज्ञायकस्वभावनो निर्णय थतां ते ऊंधी
मान्यता छूटी ने ज्ञायकभाव तरफ द्रष्टि वळी, त्यां अपूर्व अतीद्रिंयआनंदना अंशनो अनुभव थाय छे,–एमां ज
अपूर्व पुरुषार्थ आवी जाय छे. ज्ञायकस्वभावने द्रष्टिमां लईने तेनो अनुभव करतां पुरुषार्थ, ज्ञान, श्रद्धा,
आनंद, चारित्र–ए बधा गुणोनुं परिणमन स्व तरफ वळ्युं छे. स्वसन्मुख थईने ज्ञानस्वभावनो निर्णय कर्यो
तेमां केवळज्ञाननो निर्णय, क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय, भेदज्ञान, सम्यग्दर्शन, पुरुषार्थ, मोक्षमार्ग–ए बधुं एक
साथे आवी गयुं छे.
* * *
[१३४] निर्मळ क्रमबद्धपर्याय क्यारे शरू थाय?
बधाय द्रव्यो पोतपोतानी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजे छे, अने तेमां ते तद्रूप छे;–जीव पोतानी पर्यायथी
ऊपजतो होवा छतां ते अजीवने उपजावतो नथी, एटले अजीव साथे तेने कार्यकारणपणुं नथी. आम होवा
छतां, अज्ञानी पोतानी द्रष्टि पोताना ज्ञायकस्वभाव तरफ न फेरवतां, ‘हुं परने करुं’ एवी द्रष्टिथी अज्ञानपणे
परिणमे छे, अने तेथी ते मिथ्यात्वादिकर्मोनो निमित्त थाय छे. क्रमबद्ध तो क्रमबद्ध ज छे, पण अज्ञानी पोताना
ज्ञायकस्वभावनो निर्णय नथी करतो तेथी तेने क्रमबद्धपर्याय शुद्ध न थतां विकारी थाय छे. जो ज्ञायकस्वभावनो
निर्णय करे तो द्रष्टि पलटाई जाय ने मोक्षमार्गनी निर्मळ क्रमबद्धपर्याय शरू थई जाय.
[१३५] ‘मात्र द्रष्टिकी भूल है.’
चैतन्यमूर्ति आत्मा ज्ञानस्वभाव छे, ते स्व–परनो प्रकाशक छे एटले पदार्थो जेम छे तेम तेने जाणनार
छे, पण कोईने आघुंपाछुं फेरवनार नथी. भाई! जगतना बधा पदार्थोमां जे पदार्थनी जे समये जे अवस्था
थवानी छे ते थवानी ज छे, कोई परद्रव्यनी अवस्थामां फेरफार करवा तुं समर्थ नथी; –तो हवे तारे शुं करवानुं
रह्युं? पोताना ज्ञायकस्वभावने चूकीने, ‘हुं परनो कर्ता’ एवी द्रष्टिमां अटक्यो छे तेनी गूलांट मारीने
ज्ञानस्वभाव तरफ तारी द्रष्टि फेरव! ज्ञायक तरफ द्रष्टि करतां क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता रही जाय छे, ते ज्ञाता
पोताना निर्मळज्ञानादि परिणामनो तो कर्ता छे, पण रागादिनो के कर्मनो कर्ता ते नथी. आवा ज्ञातास्वभावने
जे न माने अने परनो कर्ता थईने तेनी क्रमबद्धपर्याय फेरववा जाव, तो ते जीवने सर्वज्ञनी पण खरी श्रद्धा
नथी. जेम सर्वज्ञभगवान ज्ञाताद्रष्टापणानुं ज कार्य करे छे, कोईना परिणमनने फेरवता नथी, तेम आ
आत्मानो स्वभाव पण ज्ञाताद्रष्टापणानुं कार्य करवानो ज छे.
पुण्य–पाप अधिकारनी १६०मी गाथामां आचार्यदेव कहे छे के–
सो सव्वणाणदरिसी कम्मरएण णियेणवच्छण्णो।
संसारसमावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं।।
ते सर्वज्ञानी–दर्शी पण निजकर्मरज–आच्छादने,
संसारप्राप्त न जाणतो ते सर्व रीते सर्वने.
ज्ञानस्वरूपी आत्मा तो सर्वनो ज्ञायक तथा दर्शक छे; पण पोताना ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने तेनी
प्रतीत करतो नथी तेथी ज ते अज्ञानपणे वर्ते छे. सर्वने जाणनारो जे पोतानो सर्वज्ञस्वभाव एटले के
ज्ञायकस्वभाव, तेने पोते जाणतो नथी तेथी ज्ञाताद्रष्टापणानुं परिणमन न थतां अज्ञानने लीधे विकारनुं
परिणमन थाय छे. ज्ञानस्वभावनी प्रतीत पछी ज्ञानीने अस्थिरताना कारणे अमुक रागादि थाय ने ज्ञाननुं
परिणमन ओछुं होय–तेनी अहीं मुख्यता नथी, केमके ज्ञानीने ज्ञाताद्रष्टापणानी ज मुख्यता छे, ज्ञाताद्रष्टिना
परिणमनमां रागनुं कर्तापणुं नथी.