Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: ४२ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
[१३६] ‘पुरुषार्थ’ ऊडे नहि....ने....‘क्रम’ पण तूटे नहि.
पोतानी क्रमबद्धपर्यायमां ज्ञातापणानुं कार्य करतो जीव बीजानुं पण कार्य करे एम बनतुं नथी, आ रीते
ज्ञायक जीव अकर्ता छे. जड के चेतन, ज्ञानी के अज्ञानी, बधाय पोतपोतानी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजे छे.
ज्ञायकस्वभावना आश्रये पुरुषार्थ थाय, छतां पर्यायनो क्रम तूटे नहि,
ज्ञायकस्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन थाय, छतां पर्यायनो क्रम तूटे नहि,
ज्ञायकस्वभावना आश्रये चारित्रदशा थाय, छतां पर्यायनो क्रम तूटे नहि,
ज्ञायकस्वभावना आश्रये आनंद प्रगटे, छतां पर्यायनो क्रम तूटे नहि,
ज्ञायकस्वभावना आश्रये केवळज्ञान थाय, छतां पर्यायनो क्रम तूटे नहि; जुओ, आ वस्तुस्थिति!
पुरुषार्थ ऊडे नहि ने क्रम पण तूटे नहि. ज्ञायकस्वभावना आश्रये सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र वगेरेनो पुरुषार्थ
थाय छे, अने तेवी निर्मळदशाओ थती जाय छे, छतां पण पर्यायनुं क्रमबद्धपणुं तूटतुं नथी.
[१३७] अज्ञानीए शुं करवुं?
प्रश्न:– अमे तो अज्ञानी छीए, अमारे शुं करवुं? शुं क्रमबद्ध मानीने बेसी रहेवुं?
उत्तर:– भाई! अज्ञानीए पोताना ज्ञानस्वभावनो निर्णय करवो. स्वसन्मुख पुरुषार्थ वडे ज्यां
ज्ञानस्वभावनो निर्णय कर्यो त्यां क्रमबद्धनो पण निर्णय थयो अने पोतानी क्रमबद्धपर्यायमां जे निर्मळपर्यायनो
क्रम हतो ते ज पर्याय आवीने ऊभी रही. स्वसन्मुख पुरुषार्थ वगरनी तो क्रमबद्धनी मान्यता पण साची नथी.
ज्ञानस्वभावनो आश्रय करीने परिणमतां, जो के पर्यायनो क्रम आघोपाछो थतो नथी तो पण, सम्यग्दर्शन
वगेरेनुं परिणमन थई जाय छे, ने अज्ञानदशा छूटी जाय छे. माटे, ‘अज्ञानीए शुं करवुं’ एनो उत्तर आ छे के
पोताना ज्ञानस्वभावनो निर्णय करीने अज्ञान टाळवुं. प्रश्नमां एम हतुं के “शुं अमारे बेसी रहेवुं?”–पण
भाई! बेसी रहेवानी व्याख्या शुं? आ जड शरीर बेसी रहे–तेनी साथे कांई धर्मनो संबंध नथी. अज्ञानी
अनादिथी राग साथे एकताबुद्धि करीने ते रागमां ज बेठो छे–रागमां ज स्थित छे, तेने बदले ज्ञायकस्वभावमां
एकता करीने तेमां बेसे–एटले के एकाग्र थाय तो अज्ञान टळे ने सम्यग्दर्शनादि शुद्धतानो अपूर्व क्रम शरू
थाय.–आनुं नाम धर्म छे.
[१३८] एक वगरनुं बधुंय खोटुं.
हुं ज्ञाता ज छुं ने पदार्थो क्रमबद्ध परिणमनारा छे एम जे नथी मानतो, ते केवळीभगवानने नथी
मानतो, आत्माना ज्ञानस्वभावने पण नथी मानतो, पंच परमेष्ठी भगवंतोने के शास्त्रने पण ते नथी मानतो,
जीव–अजीवनी स्वतंत्रताने के सात तत्त्वोने पण ते नथी जाणतो, मोक्षमार्गना पुरुषार्थने पण ते नथी जाणतो,
द्रव्य–गुण–पर्यायनुं उपादान–निमित्तनुं के निश्चय–व्यवहारनुं यथार्थ स्वरूप पण ते नथी जाणतो.
ज्ञानस्वभावनो निर्णय जेणे न कर्यो तेनुं कांई पण साचुं नथी. ज्ञानस्वभावनो निर्णय करे तो तेमां बधा
पडखांनो निर्णय आवी जाय छे.
[१३९] पंच तरीके परमेष्ठी, अने तेनो फेंसलो.
प्रश्न:– आ संबंधमां अत्यारे बहु झघडा (मतभेद) चाले छे, माटे आमां ‘पंच’ने वच्चे नांखीने कांईक
नीवेडो लावो ने?
उत्तर:– भाई, पंचपरमेष्ठीभगवान ज अमारा ‘पंच’ छे. ज्ञायकस्वभाव अने क्रमबद्धपर्यायनुं आ जे
वस्तु–स्वरूप कहेवाय छे ते ज प्रमाणे अनादिथी पंचपरमेष्ठी भगवंतो कहेता आव्या छे, अने महाविदेहमां
बिराजता सीमंधरादि भगवंतो अत्यारे पण ए ज उपदेश आपी रह्या छे. आ सिवाय अज्ञानीओ बीजुं
विपरीत माने तो भले माने, पण अहीं तो पंचपरमेष्ठी भगवंतोने पंच तरीके राखीने आ वात कहेवाय छे.
पंचपरमेष्ठी भगवंतो आ ज प्रमाणे मानता आव्या छे ने आज प्रमाणे कहेता आव्या छे. जेने पंचपरमेष्ठी
पदमां भळवुं होय तेणे पण आ ज प्रमाणे मान्ये छूटको छे.
जुओ, आ पंचनो फेंसलो!
हे भाई! पंचपरमेष्ठी भगवंतोमां अरिहंत अने सिद्ध भगवंतो सर्वज्ञ छे–त्रणकाळ त्रणलोकने प्रत्यक्ष
जाणनारा छे,–ए सर्वज्ञताने तुं माने छे के नथी मानतो?
–जो तुं ए सर्वज्ञताने खरेखर मानतो हो तो तेमां क्रमबद्धपर्यायनो पण स्वीकार थई ज गयो.