Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ४३ :
–अने जो तुं सर्वज्ञताने न मानतो हो तो तें ‘पंच’ने
(–पंचपरमेष्ठी भगवंतोने) ज खरेखर मान्या नथी.
णमो अरिहंताणं ने णमो सिद्धाणं’ एम दररोज
बोले, पण अरिहंत अने सिद्ध–भगवान केवळज्ञान सहित
छे,–तेओ त्रणकाळ त्रणलोकने जाणे छे अने ते ज प्रमाणे
थाय छे–एम माने तो तेमां क्रमबद्धपर्यायनो स्वीकार
आवी ज जाय छे. आत्मानी संपूर्ण ज्ञानशक्तिने अने
क्रमबद्धपर्यायने जे नथी मानतो ते पंचपरमेष्ठी भगवंतोने
पण यथार्थ स्वरूपे नथी मानतो. माटे जेणे खरेखर
पंचपरमेष्ठी भगवंतोने ओळखवा होय तेणे बराबर
निर्णय करीने आ वात मानवी.
–आवो पंचनो फेंसलो छे.
• • •
[१४०] जीवना अकर्तापणानी न्यायथी सिद्धि.
ज्ञायक आत्मा कर्मनो अकर्ता छे–एम अहीं आचार्यदेव न्यायथी सिद्ध करे छे:
(१) प्रथम तो जीव ने अजीव बधांय द्रव्यो पोतपोतानी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजे छे;
(२) जे पर्याय थाय छे तेमां ते तद्रूप छे;
(३) जीव पोतानां परिणामपणे ऊपजतो होवा छतां, ते परने (–कर्मने) उपजावतो नथी, एटले तेने
परनी साथे उत्पाद्य–उत्पादक भाव नथी;
(४) उत्पाद्य–उत्पादकभाव वगर कार्य–कारणपणुं होतुं नथी, एटले जीव कारण थईने कर्मने उपजावे
एम बनतुं नथी; अने–
(५) कारण–कार्यभाव वगर जीवने अजीव साथे कर्ताकर्मपणुं सिद्ध थई शकतुं नथी, अर्थात् ज्ञायक–
भावपणे ऊपजतो जीव कर्ता थईने, मिथ्यात्वादि अजीवकर्मने उपजावे, एम कोई रीते सिद्ध थतुं नथी. –माटे
ज्ञायकभावनी क्रमबद्धपर्यायपणे परिणमतो ज्ञानी कर्मनो अकर्ता ज छे. भाई! तुं तो ज्ञानस्वभाव! तुं तारा
ज्ञाताद्रष्टाभावपणे परिणमीने, ते परिणाममां तद्रूप थईने तेने कर, पण जडकर्मनो तुं कर्ता था–एवो तारो
स्वभाव नथी. अहो!.....हुं......ज्ञा.....य.....क.....छुं.....एम.....अं.....त.....र्.....मु.....ख थ.....ई.....ने
स.....म.....जे तो.....जी.....व.....ने.....के.....ट.....ली.....शां.....ति.....थ.....ई.....जा.....य!.....
[१४१] अजीवमां पण अकर्तापणुं.
अहीं जीवनुं अकर्तापणुं समजाववा माटे आचार्यदेवे जे न्याय आप्यो छे ते बधा द्रव्योमां लागु पडे छे.
अजीवमां पण एक अजीव ते बीजा अजीवनुं अकर्ता छे. जेमके–पाणी ऊनुं थयुं त्यां अग्नि तेनो अकर्ता छे, ते
नीचे प्रमाणे–
(१) अग्नि अने पाणी बंने पदार्थो पोतपोतानी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजे छे;
(२) पोतपोतानी जे पर्याय थाय छे तेमां ते तद्रूप छे;
(३) अग्नि पोतानां परिणामपणे ऊपजतो होवा छतां, ते पाणीनी उष्ण अवस्थाने उपजावतो नथी;
एटले तेने पाणीनी साथे उत्पाद्य–उत्पादकभाव नथी;
(४) उत्पाद्य–उत्पादकभाव वगर कार्य–कारणपणुं होतुं नथी, एटले अग्नि कारण थईने पाणीनी उष्ण
अवस्थाने उपजावे –एम बनतुं नथी; अने–
(प) कारण–कार्यभाव वगर अग्निने पाणी साथे कर्ताकर्मपणुं सिद्ध थई शकतुं नथी.