: ४४ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
–माटे अग्नि पाणीनी अकर्ता ज छे. अग्नि अग्निनी पर्यायमां तद्रूप छे, ने उष्ण पाणीनी अवस्थामां ते
पाणी ज तद्रूप छे. ए ज प्रमाणे कुंभार अने घडो, वगेरे जगतना बधा पदार्थोमां पण उपर मुजब पांच बोल
लागु पाडीने एकबीजानुं अकर्तापणुं समजी लेवुं.
[नोंध : अहीं जे अग्नि अने पाणीनुं द्रष्टांत आप्युं छे, ते द्रष्टांत जीवनुं अकर्तापणुं सिद्ध करवा माटे नथी
आप्युं, पण अजीवनुं परस्पर अकर्तापणुं सिद्ध करवा माटे ते द्रष्टांत छे,–ए वात लक्षमां राखवी.]
[१४२] “–निमित्तकर्ता तो खरो ने?”
प्रश्न:– जीव कर्ता छे के नथी?
उत्तर:– हा; जीव कर्ता खरो, पण शेनो? के–पोताना ज्ञायक परिणामनो;–पुद्गलकर्मनो नहीं.
प्रश्न:– पुद्गलकर्मनो निमित्त कर्ता तो खरो के नहि?
उत्तर:– ना; ज्ञायकभावपणे परिणमतो जीव मिथ्यात्वादि पुद्गलकर्मनो निमित्तकर्ता पण नथी. कर्मना
निमित्त थवा उपर जेनी द्रष्टि छे ते जीवने ज्ञायकभावनुं परिणमन नथी पण अज्ञानभावनुं परिणमन छे.
अज्ञान भावने लीधे ज ते पुद्गलकर्मनो निमित्तकर्ता थाय छे, अने ते संसारनुं ज कारण छे.–आ वात
आचार्यदेवे हवे पछीनी गाथाओमां बहु सरस समजावी छे.
[१४३] ज्ञातानुं कार्य.
ज्ञानस्वभावी जीव कर्ता थईने कोईनी पर्यायने आघीपाछी पलटावे एम नथी. पोते पोताना
ज्ञातापरिणामे ऊपजतो थको क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता छे, ज्ञातापरिणाम ते ज ज्ञानीनुं कार्य छे. जेम ईश्वर
जगतना कर्ता–ए वात खोटी छे, तेम जीव परनो कर्ता ए वात पण खोटी छे. ज्ञायकमूर्ति आत्मा स्व–पर
प्रकाशक छे, खरेखर ज्ञायक तो शुभ–अशुभ भावोनो पण जाणनार ज छे; तेमां एकतापणे नहि परिणमतो
होवाथी, पण भिन्नपणे ज्ञानभावे परिणमतो होवाथी, ते रागनो कर्ता नथी. रागने ज्ञान साथे भेळवीने जे
तेनो कर्ता थाय छे, तेनी द्रष्टि ‘ज्ञायक’ उपर नथी पण विकार उपर छे, एटले ते मिथ्याद्रष्टि छे. शुभभाव थाय,
त्यां ‘अशुभ थवाना हता पण ज्ञाने तेने पलटीने आ शुभ कर्या’ एम जे माने छे, तेनुं वलण पण विकार तरफ
ज छे, ज्ञायक उपर तेनुं वलण नथी. ज्ञाता तो ज्ञायकस्वभावनी सन्मुख थईने, पोताना ज्ञाताभावे ज
परिणमतो, ते ते समयना रागने पण ज्ञाननुं व्यवहारज्ञेय बनावे छे, पण तेने ज्ञाननुं कार्य नथी मानतो. ते
समये जे ज्ञानपरिणमन थयुं (–ते ज्ञानपरिणमननी साथे सम्यक्श्रद्धा, आनंद, पुरुषार्थ वगेरेनुं परिणमन पण
भेगुं ज छे) ते ज ज्ञातानुं कार्य छे. आ रीते ज्ञानी पोताना निर्मळ ज्ञान–आनंद वगेरे परिणामोनो कर्ता छे,
पण रागनो के परनो कर्ता नथी.
[१४४] ‘अकार्यकारणशक्ति’ अने पर्यायमां तेनुं परिणमन.
ज्ञानी जाणे छे के मारामां अकार्यकारणशक्ति छे; हुं कारण थईने परनुं कार्य करुं, के पर वस्तु कारण
थईने मारुं कार्य करे–एवुं पर साथे कार्यकारणपणुं मारे नथी. अरे! अंतरमां ज्ञान कारण थईने रागने कार्यपणे
उपजावे, अथवा तो रागने कारण बनावीने ज्ञान तेना कार्यपणे ऊपजे,–एवुं ज्ञान अने रागने पण
कार्यकारणपणुं नथी. आवी अकार्यकारणशक्ति आत्मामां छे.
प्रश्न:– अकार्यकारणपणुं तो द्रव्यमां ज छे ने?
उत्तर:– द्रव्यमां अकार्यकारणशक्ति छे–एम मान्युं कोणे? –पर्याये. जे पर्याये द्रव्यसन्मुख थईने अकार्य–
कारणशक्तिने मानी, ते पर्याय द्रव्यनी साथे अभेद थईने पोते पण अकार्यकारणरूप थई गई छे; ए रीते
पर्यायमां पण अकार्यकारणपणुं छे. बीजी रीते कहो तो, ज्ञायकस्वभाव तरफ वळीने जे पर्याय अभेद थई ते
पर्यायमां रागनुं के परनुं कर्तापणुं नथी, ते तो ज्ञायकभावरूप ज छे.
[१४५] आत्मा परनो उत्पादक नथी.
जुओ, भाई! जेने पोताना आत्मानुं हित करवानी गरज थई होय–एवा जीवने माटे आ वात छे.
अंतरनी लोकोत्तरद्रष्टिनी आ वात छे, लौकिक वातनी साथे आ वातनो मेळ खाय तेम नथी. लौकिकमां तो
अत्यारे एवी झुंबेश चाले छे के “अनाजनुं उत्पादन वधारो ने वस्तीनुं उत्पादन घटाडो.” अहीं तो
लोकोत्तरद्रष्टिनी वात छे के भाई! तुं परनो उत्पादक नथी, तुं तो ज्ञान छो. “अरे! अभक्ष्य चीज खाईने पण
अनाज बचावो”–एम कहेनार तो अनार्यद्रष्टिवाळा छे ;–एवानी वात तो दूर रही, पण अहीं तो कहे छे के
आत्मा कर्ता थईने परने उपजावे के परने ऊपजतुं अटकावे–एम माननार पण मूढ