: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ४५ :
मिथ्याद्रष्टि छे. ज्ञानीने तो अंतरमां रागनुं पण अकर्तापणुं छे–ए वात तो हजी आनाथी पण सूक्ष्म छे.
[१४६] ‘बधा माने तो साचुं’–ए वात खोटी (साचा साक्षी कोण?)
प्रश्न:– बधाय हा पाडे तो तमारुं साचुं!
उत्तर:– अरे भाई! अमारे तो पंचपरमेष्ठी ज पंच छे, एटले पंचपरमेष्ठी माने ते साचुं. दुनियाना
अज्ञानी लोको भले बीजुं माने.
जेवो प्रश्न अहीं कर्यो तेवो ज प्रश्न भैया भगवती–दासजीना उपादान निमित्तना दोहरामां कर्यो छे; त्यां
निमित्त कहे छे के:–
निमित्त कहै मोकों सबै जानत है जगलोय;
तेरो नांव न जान ही उपादाक को होय ? ।। ४।।
–हे उपादान! जगतमां घरे घरे लोकोने पूछीए, तो बधा मारुं ज नाम जाणे छे–अर्थात् निमित्तथी कार्य
थाय एम बधा माने छे, पण उपादान शुं छे तेनुं तो नाम पण जाणता नथी.
त्यारे तेना जवाबमां उपादान कहे छे के
उपादान कहे रे निमित्त! तू कहा करै गुमान?
मोकों जाने जीव वे जो है सम्यक्वान।। ५।।
–अरे निमित्त! तुं गुमान शा माटे करे छे? जगतना अज्ञानी लोको मने भले न जाणे, पण जेओ
सम्यक्त्ववंत ज्ञानी जीवो छे तेओ मने जाणे छे.
निमित्त कहे छे के जगतने पूछीए. उपादान कहे छे के ज्ञानीने पूछीए.
ए ज प्रमाणे फरीथी निमित्त कहे छे के–
कहै जीव सब जगतके जो निमित्त सोइ होय।
उपादान की बातको पूछे नाहीं कोय।। ६।।
–जेवुं निमित्त होय तेवुं कार्य थाय एम तो जगतना बधा जीवो कहे छे, पण उपादाननी वातने तो कोई
पूछतुं य नथी.
त्यारे तेने जवाब आपतां उपादान कहे छे के–
उपादान बिन निमित्त तू कर न सके इक काज।
कहा भयौ जग ना लखे जानत है जिनराज।। ८।।
–अरे निमित्त! उपादान वगर एक पण कार्य थई शकतुं नथी एटले के उपादानथी ज कार्य थाय छे.–
जगतना अज्ञानी जीवो न जाणे तेथी शुं थयुं?–जिनराज तो ए प्रमाणे जाणे छे.
तेम अहीं, ‘आत्मानो ज्ञायकस्वभाव अने तेना ज्ञेयपणे वस्तुनी क्रमबद्धपर्यायो’ ए वात दुनियाना
अज्ञानी जीवो न समजे अने तेनी हा न पाडे तेथी शुं? परंतु पंचपरमेष्ठी भगवंतो तेनी साक्षी छे, तेओए आ
प्रमाणे ज जाण्युं छे ने आ प्रमाणे ज कह्युं छे; अने जे कोई जीवने पोतानुं हित करवुं होय–पंच परमेष्ठीनी
पंगतमां बेसवुं होय, तेणे आ वात समजीने हा पाडये ज छूटको छे.
[१४७] ‘गोशाळानो मत?’–के जैनशासननो मर्म?
आ तो जैनशासननी मूळ वात छे. आ वातने ‘गोशाळानो मत’ कहेनार जैनशासनने जाणतो नथी.
प्रथम तो ‘गोशाळो’ हतो ज क्यारे? अने ए वात तो अनेकवार स्पष्ट कहेवाय गई छे के ज्ञायकस्वभाव
सन्मुखना पुरुषार्थ वगर एकांत नियत माननार आ क्रमबद्धपर्यायनुं रहस्य समज्यो ज नथी; सम्यक्पुरुषार्थ
वडे जेणे ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करी अने ज्ञाता थयो तेने ज क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय छे, अने तेणे ज
जैनशासनने जाण्युं छे.
[१४८] कर्ता–कर्मनुं अन्यथी निरपेक्षपणुं.
उत्पाद्य वस्तु पोते ज पोतानी योग्यताथी ऊपजे छे, बीजो कोई उत्पादक नथी; वस्तुमां ज तेवी
क्रमबद्धपर्यायपणे स्वत: परिणमवानी शक्ति छे–तेवी अवस्थानी योग्यता छे–तेवो ज स्वकाळ छे, तो तेमां बीजो
शुं करे? अने जो वस्तुमां पोतामां स्वत: तेवी शक्ति न होय–योग्यता न होय–स्वकाळ न होय तो पण बीजो
तेमां शुं करे?–माटे अन्यथी निरपेक्षपणे ज कर्ताकर्मपणुं छे. पूर्वे कर्ताकर्म–अधिकारमां आचार्यदेव ए वात कही
गया छे के “स्वयं अपरिणमताने पर वडे परिणमावी शकाय नहि; कारण के वस्तुमां जे शक्ति स्वत: न होय
तेने अन्य कोई करी शके नहि. अने स्वयं परिणमताने तो पर परिणमावनारनी अपेक्षा न होय; कारण के
वस्तुनी शक्तिओ परनी अपेक्षा राखती नथी.” (जुओ गाथा ११६ थी १२५)