Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: ४६ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
[१४९] सर्वत्र उपादाननुं ज बळ.
वळी पं. बनारसीदासजी पण कहे छे के–
उपादान बल जहँ–तहां, नहि निमित्तको दाव।
एक चक्रसों रथ चले रविको यहै स्वभाव।।
५।।
–ज्यां जुओ त्यां उपादाननुं ज बळ छे, एटले के योग्यताथी ज कार्य थाय छे, तेमां निमित्तनो कांई
दावपेच नथी, “निमित्तने लीधे कार्य थयुं” एवो निमित्तनो दाव के वारो कदी आवतो ज नथी, ज्यां जुओ त्यां
उपादाननो ज दाव छे. ‘आम केम?’ के उपादाननी तेवी ज योग्यता! ‘निमित्तने लीधे थयुं?’–के ना.
[१५०] “–निमित्त विना......??”
प्रश्न:– निमित्त कांई करे नहि ए साचुं, पण शुं निमित्त विना थाय छे?
उत्तर:– हा, भाई! उपादानना कार्यमां तो निमित्तनो अभाव छे माटे खरेखर निमित्त विना ज कार्य
थाय छे. निमित्त छे खरुं, पण ते निमित्तमां छे, उपादानमां तो तेनो अभाव ज छे, ते अपेक्षाए निमित्त विना
ज थाय छे.
–आवी वात आवे त्यां उपादान निमित्तनुं भेदज्ञान समजवाने बदले केटलाक ऊंधी द्रष्टिवाळा जीवो कहे
छे के ‘अरे! निमित्तनो निषेध थई जाय छे!’ भाई रे! आमां निमित्तना अस्तित्वनो निषेध थतो नथी,
निमित्त निमित्त तरीके जेम छे तेम रहे छे. तुं निमित्तने निमित्त तरीके राख, निमित्तने उपादानमां न भेळव.
अज्ञानीओ निमित्त–नैमित्तिक संबंधने कर्ता–कर्मपणे मानीने, उपादान–निमित्तनी एकता करी नांखे छे.
“–कार्य थाय उपादानथी, पण कांई निमित्त विना थाय छे?
–शरीरनी क्रिया थाय शरीरथी, पण कांई जीव विना थाय छे?
–विकार करे जीव पोते, पण कांई कर्म विना थाय छे?
–ज्ञान थाय पोताथी, पण कांई गुरु विना थाय छे?
–मोक्ष थाय जीवना उपादानथी, पण कांई मनुष्यदेह विना थाय छे?”
–एम केटलाक दलील करे छे; पण भाई! उपादाननी पोतानी योग्यताथी ज थाय–एम जे खरेखर जाणे
छे तेने पर निमित्त केवुं होय तेनुं पण ज्ञान होय ज छे, एटले “निमित्त विना....” नो प्रश्न तेने रहेतो नथी. ते
तो जाणे छे के उपादानथी कार्य थाय छे, ने त्यां योग्य निमित्त होय ज छे,–‘गतैः धर्मास्तिकायवत्।
जे जीव स्व–पर बे वस्तुने मानतो ज नथी–निमित्तने जाणतो ज नथी, एवा अन्यमतिने निमित्तनुं
अस्तित्व सिद्ध करवा माटे “निमित्त विना न थाय” एवी दलीलथी समजाववामां आवे छे; पण ज्यां स्व–
परना भेदज्ञाननी वात चालती होय, उपादान–निमित्तनी स्वतंत्रतानुं वर्णन चालतुं होय, त्यां वच्चे ‘निमित्त
विना न थाय’–ए दलील मूकवी ते तो निमित्ताधीन द्रष्टि ज सूचवे छे. “निमित्त होय ज छे” पछी ‘निमित्त
विना न थाय’ ए दलीलनुं शुं काम छे?
प्रवचनसार गा. १६० मां आचार्यदेव कहे छे के खरेखर हुं शरीर, वाणी अने मनने आधारभूत नथी,
तेमनुं कारण हुं नथी, तेमनो कर्ता हुं नथी, तेमनो प्रयोजक के अनुमोदक पण हुं नथी; मारा विना ज एटले के हुं
ते शरीरादिनो आधार थया विना, कारण थया विना, कर्ता थया विना, प्रयोजक के अनुमोदक थया विना, तेओ
स्वयं पोतपोताथी ज कराय छे, माटे हुं ते शरीरादिनो पक्षपात छोडीने (अर्थात् मारा निमित्त विना ते न थाय–
एवो पक्षपात छोडीने) अत्यंत मध्यस्थ–साक्षीस्वरूप–ज्ञायक छुं.
(जुओ, प्रवचनसार गा. १६०)
[१५१] आ उपदेशनुं तात्पर्य अने तेनुं फळ.
अहीं आचार्यदेव कहे छे के हे भाई! सर्वे द्रव्योने बीजानी साथे उत्पाद्य–उत्पादकभावनो अभाव छे, माटे
तुं ज्ञाता ज रहे. ‘हुं ज्ञान छुं’ एवो निर्णय करीने स्वसन्मुख ज्ञातापरिणामपणे जे ऊपज्यो ते जीव पोताना
सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–आनंद वगेरे कार्यपणे ऊपजे छे तेथी तेनो उत्पादक छे, पण कर्म वगेरे परनो उत्पादक नथी.
आम जीवने स्वभावसन्मुख द्रष्टि करीने निर्मळ क्रमबद्धपर्यायपणे परिणमवा माटे आ उपदेश छे.
ज्ञायकस्वभावनी सन्मुख