Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: ४८ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
ज्ञायकस्वरूप अने पर्यायोनुं क्रमबद्धस्वरूप, ए बेमांथी एकने पण न माने तो ज्ञान अने ज्ञेयनो मेळ रहेतो
नथी एटले के सम्यग्ज्ञान थतुं नथी. ज्ञायकस्वभाव अने क्रमबद्धपर्याय ए बंनेनो निर्णय एक साथे ज थाय छे.
–क्यारे? के ज्ञानस्वभाव तरफ वळे त्यारे.
[१५५] आ वात कोने परिणमे?
हजी तो यथार्थ गुरुगमे जेणे आवी वातनुं श्रवण पण कर्युं नथी ते तेनुं ग्रहण ने धारण तो क्यांथी करे?
अने सत्यनुं ग्रहण अने धारण कर्या वगर ज्ञानस्वभावसन्मुख थईने तेनी रुचिनुं परिणमन क्यांथी थाय?
अहीं एम कहेवुं छे के जे हजी तो ऊंधी वातनुं श्रवण अने पोषण करी रह्या छे तेने सत्य रुचिना परिणमननी
लायकात नथी. जेने अंतरनी घणी पात्रता अने पुरुषार्थ होय तेने ज आ वात परिणमे तेवी छे.
[१५६] धर्मनो पुरुषार्थ.
उत्पाद–व्यय–धु्रव युक्तं सत्, अने सत् ते द्रव्यनुं लक्षण छे; तेमां पण क्रमबद्धपर्यायनी वात समाई जाय
छे, क्रमबद्धपर्याय वगर उत्पाद–व्यय बनी शके नहि. दरेक पर्यायनो उत्पाद पोतपोताना काळे एक समय पूरतो
सत् छे. एकली पर्याय उपर के राग उपर द्रष्टि राखीने आ क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय नथी थतो, पण धु्रव
ज्ञायकस्वभाव उपर द्रष्टि राखीने ज क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय थाय छे. घणाने एम प्रश्न थाय छे के
क्रमबद्धपर्यायमां वळी धर्मनो पुरुषार्थ करवानुं क्यां रह्युं? तेने कहे छे के भाई! सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानना अंर्त
पुरुषार्थ वगर आ वात नक्की ज थती नथी; ‘हुं ज्ञायक छुं’ एवी द्रष्टि वगर क्रमबद्धपर्यायनुं ज्ञान करशे कोण?
ज्ञानना निर्णय विना ज्ञेयनो निर्णय थतो ज नथी. ज्ञानना निर्णय सहित क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय करे तो
अनंत पदार्थोमां क्यांय फेरफार करवानो अनंतो अहंकार ऊडी जाय, अने ज्ञातापणे ज रहे.–आमां ज
मिथ्यात्वना ने अनंतानुबंधी कषायना नाशनो पुरुषार्थ आवी गयो. आ ज धर्मना पुरुषार्थनुं स्वरूप छे, बीजो
कोई बहारनो पुरुषार्थ नथी.
[१५७] ‘क्रमबद्ध’ नो निर्णय अने तेनुं फळ.
क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय कोने थाय? अने तेनुं फळ शुं?
–जेनी बुद्धि ज्ञायकभावमां एकाग्र थई छे, अने रागमां के परनो फेरफार करवानी मान्यतामां जेनी बुद्धि
अटकी नथी तेने ज क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय थयो छे, अने ते निर्णयनी साथे तेने पुरुषार्थ वगेरे पांचे
समवाय (पूर्वोक्त प्रकारे) आवी जाय छे. अने, स्वसन्मुख थईने ते निर्णय करतां ज सम्यग्दर्शनादि निर्मळ
पर्यायोनो क्रमबद्धप्रवाह शरू थई जाय छे–ए ज तेनुं फळ छे. ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि कहो, क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय
कहो, के मोक्षमार्गनो पुरुषार्थ कहो,–त्रणे एक साथे ज छे; तेमांथी एक होय ने बीजा बे न होय–एम न बने.
दरेक पदार्थ सत् छे, तेनुं जे अनादिअनंत जीवन छे तेमां त्रणकाळनी पर्यायो एक साथे प्रगटी जती नथी
पण एक पछी एक प्रगटे छे, अने दरेक समयनी पर्याय व्यवस्थित क्रमबद्ध छे. आवा वस्तुस्वरूपनो निर्णय
करनारने सर्वज्ञना केवळज्ञाननो निर्णय थयो अने पोताना ज्ञानमां तेवुं सर्वज्ञतानुं सामर्थ्य छे–एनो पण
निर्णय थयो. ज्ञान–स्वभावनी सन्मुखतामां आ बधानो निर्णय एक साथे थई जाय छे. अक्रम एवा
ज्ञायकस्वभावी द्रव्य तरफ वळीने तेनो निर्णय करतां, पर्यायना क्रमबद्धपणानो निर्णय पण थई जाय छे,
अक्रमरूप अखंडद्रव्यनी द्रष्टि वगर पर्यायना क्रमबद्धपणानुं यथार्थ ज्ञान थतुं नथी.
भगवान! द्रव्य त्रिकाळी सत् छे, ने पर्याय एकेक समयनुं सत् छे, ते सत् जेम छे तेम जाणवानो तारो
स्वभाव छे, पण तेमां क्यांय आडुंअवळुं करवानो तारो स्वभाव नथी. अरे, सत्मां ‘आम केम?’ एवो विकल्प
करवानो पण तारो स्वभाव नथी. आवा स्वभावनी प्रतीत करतां मोक्षमार्गनी शरूआत थई जाय छे, ने तेमां
मोक्षमार्गना पांचे समवाय एक साथे आवी जाय छे.
[१५८] आ छे संतोनुं हार्द
एक तरफ एकलो ज्ञायकस्वभाव, ने बीजी तरफ क्रमबद्धपर्याय,–एनो यथार्थ निर्णय करवामां बधुं आवी
जाय छे, ते मूळ वस्तु धर्म छे, ते केवळीभगवाननुं पेट छे, संतोनुं हार्द छे, शास्त्रोनो मर्म छे, विश्वनुं दर्शन छे,
अने मोक्षमार्गनुं कर्तव्य केम थाय तेनी आ रीत छे.