: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ४९ :
अज्ञानी कहे छे के आ ‘रोगचाळो’ छे, त्यारे अहीं कहे छे के आ तो सर्वज्ञना हृदयनुं हार्द छे, जेने आ
वात बेठी तेना हृदयमां सर्वज्ञ बेठा,–ते अल्पज्ञ होवा छतां ‘हुं सर्वज्ञ जेवो ज्ञाता ज छुं’ एवो तेने निर्णय थयो.
हजी जेणे आवा वस्तु स्वरूपनो निर्णय कर्यो नथी, अरे! आ वात सांभळी पण नथी, ने एमने एम
त्यागी के व्रतीपणुं लईने धर्म मानी लीधो छे, तेमने धर्म तो नथी, परंतु धर्मनी रीत शुं छे तेनी पण तेमने
खबर नथी.
[१५९] आ वात समजे तेनी द्रष्टि पलटी जाय.
अहीं ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिनी वात छे, एटले ज्ञानस्वभावनो निर्णय शुं, पुरुषार्थ शुं, सम्यग्दर्शन शुं,–
ए बधुं भेगुं ज आवी जाय छे, ने ए द्रष्टिमां तो गृहीत के अगृहीत बंने मिथ्यात्वनो नाश थई जाय छे;
ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि जे करतो नथी, पुरुषार्थने मानतो नथी, सम्यग्दर्शन करतो नथी ने ‘जे थवानुं हशे ते
थशे’ एम एकांत नियतने पकडीने स्वछंदी थाय छे, ते गृहितमिथ्याद्रष्टि छे, एवा जीवनी अहीं वात नथी. आ
वात समजे तेने एवो स्वछंद रहे ज नहि, तेनी तो द्रष्टिनुं आखुं परिणमन पलटी जाय.
[१६०] ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिनी ज मुख्यता.
द्रव्यद्रष्टि वगर क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय बनतो नथी; केम के क्रमबद्धपणुं समय समयनी पर्यायमां छे,
अने छद्मस्थनो उपयोग असंख्य समयनो छे, ते असंख्य समयना उपयोगमां एकेक समयनी पर्याय जुदी
पाडीने पकडी शकाती नथी, पण धु्रवज्ञायकस्वभावमां उपयोग एकाग्र थई शके छे. तेथी समय समयनी पर्यायनुं
क्रमबद्धपणुं पकडवा जतां, उपयोग अंतरमां वळीने धु्रव ज्ञायकस्वभावमां एकाग्र थाय छे, ने ज्ञायकनी प्रतीतमां
क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीत पण थई जाय छे. आ रीते आमां ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि ज मुख्य छे.
[१६१] जेवुं वस्तुस्वरूप, तेवुं ज ज्ञान अने तेवी वाणी.
जुओ, आ वस्तुस्वरूप! पदार्थनुं जेवुं स्वरूप होय तेवुं ज ज्ञान जाणे, तो ते ज्ञान साचुं थाय. बधा
पदार्थोनी त्रणेकाळनी पर्यायो क्रमबद्ध छे एवुं ज वस्तुस्वरूप छे, सर्वज्ञभगवाने केवळज्ञानमां प्रत्यक्ष ए प्रमाणे
जाण्युं छे अने वाणीमां पण तेम ज कह्युं छे; ए रीते पदार्थ, ज्ञान अने वाणी त्रणे सरखां छे. पदार्थोनो जेवो
स्वभाव छे तेवो ज ज्ञानमां जोयो, अने जेवो ज्ञानमां जोयो तेवो ज वाणीमां आव्यो; एवा वस्तुस्वरूपथी जे
विपरीत माने छे,–आत्मा कर्ता थईने परनी पर्यायने फेरवी शके एम माने छे, ते पदार्थना स्वभावने जाणतो
नथी, सर्वज्ञना केवळज्ञानने जाणतो नथी ने सर्वज्ञना कहेला आगमने पण ते जाणतो नथी, एटले देव–गुरु–
शास्त्रने तेणे खरेखर मान्या नथी.
आ ‘क्रमबद्धपर्याय’ बाबतमां अत्यारे घणा जीवोने निर्णय नथी, अने बहु गोटा चाले छे तेथी अहीं
घणा घणा प्रकारथी तेनी स्पष्टता करवामां आवी छे.
[१६२] स्वछंदीना मननो मेल : नंबर १.
प्रश्न:– सर्वज्ञ भगवाने जोयुं हशे तेम क्रमबद्ध थशे एम आप कहो छो, तो पछी अमारी पर्यायमां
मिथ्यात्व पण क्रमबद्ध थवानुं हशे ते थशे!
उत्तर:– अरे मूढ! तारे सर्वज्ञने मानवा नथी ने स्वछंद पोषवो छे!–काढी नांख तारा मननो मेल!!
सर्वज्ञनो निर्णय करे अने वळी मिथ्यात्व पण रहे–ए क्यांथी लाव्यो? तें सर्वज्ञनो निर्णय ज कर्यो नथी. माटे
अंतरनो मेल काढी नांख....गोटा काढी नांख, ने ज्ञानस्वभावना निर्णयनो उद्यम कर. ज्ञानस्वभावना निर्णय
विना ‘क्रमबद्ध’नी वात तुं क्यांथी लाव्यो? मात्र ‘क्रमबद्ध’ एवा शब्दो पकडी लीधे चाले तेवुं नथी.
ज्ञानस्वभावनो निर्णय करीने क्रमबद्धने माने तो तो पोतानी पर्यायमां मिथ्यात्व रहेवानो प्रश्न ज न ऊठे, केमके
तेनी पर्याय तो अंतरस्वभावमां वळी गई छे, तेने हवे मिथ्यात्वनो क्रम होय ज नहि, अने सर्वज्ञभगवान पण
एवुं जुए ज नहि.
जेने ज्ञानस्वभावनुं भान नथी, सर्वज्ञनो निर्णय नथी ने ते प्रकारनो उद्यम पण करतो नथी, विकारनी
रुचि छोडतो नथी ने फक्त भाषामां ‘क्रमबद्धपर्याय’नुं नाम लईने स्वछंदी थाय छे, तेवा जीवो तो पोताना
आत्माने ज छेतरे छे. अरे! जे परम वीतरागतानुं कारण छे