Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: ५० : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
तेनी ओथ लईने स्वछंदने पोषे छे, ए तो तेनी महा ऊंधाई छे.
[१६३] स्वछंदीना मननो मेल : नंबर २.
एक त्यागी–पंडितजीए विद्यार्थी उपर खूब क्रोध कर्यो, कोईए तेने टकोर करी त्यारे तेणे कह्युं के “अरे!
भया! तुमने गोमट्टसार नहीं पढा, गोमट्टसारमें ऐसा लिखा है कि जब क्रोधक उदय आता है तब क्रोध
हो ही जाता है।”–
जुओ, आ गोमट्टसार शीखीने सार काढयो! अरे भाई! तुं गोमट्टसरनी ओथ न ले, तारा
जेवा स्वछंद पोषनारने माटे गोमट्टसारनुं ए कथन नथी. पहेलां तो क्रोधादि कषाय थाय तेनो भय रहेतो, ने
पोताना दोषनी निंदा करतो, तेने बदले हवे तो ते पण न रह्युं! भाई रे! शास्त्रनो उपदेश तो वीतरागता माटे
होय? के कषाय वधारवा माटे? अज्ञानदशामां जेवो कषाय हतो एवा ने एवा ज कषायमां ऊभो होय तो ते
शास्त्रने भण्यो ज नथी, भले गोमट्टसारनुं नाम ल्ये पण खरेखर ते गोमट्टसारने मानतो ज नथी.
[१६४] स्वछंदीना मननो मेल : नंबर ३.
–ए ज प्रमाणे हवे आ क्रमबद्धपर्यायनी वातमां ल्यो. कोई जीव रुचिपूर्वक तीव्र क्रोधादि भावो करे अने
पछी एम कहे छे “शुं करीए भाई? अमारी क्रमबद्धपर्याय एवी ज थवानी हती!” क्रमबद्धपर्याय सांभळीने
ज्ञायकस्वभाव तरफ वळवाने बदले, जो आवो सार काढे तो ते स्वछंदी छे, क्रमबद्धपर्यायने ते समज्यो ज नथी.
अरे भाई! तुं क्रमबद्धपर्यायनी ओथ न ले, तारा जेवा स्वछंद पोषनार माटे आ वात नथी पहेलां तो क्रोधादि
कषायनो भय रहेतो ने पोताना दोषनी निंदा करतो, तेने बदले हवे तो ते पण न रह्युं? भाई रे! आ
क्रमबद्धपर्यायनो उपदेश तो पोताना ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि करतो नथी ते जीव क्रमबद्धपर्यायनी वात समज्यो
ज नथी, भले क्रमबद्धपर्यायनुं नाम ल्ये पण खरेखर ते क्रमबद्धपर्यायने मानतो ज नथी.
माटे हे भाई! तारा मननो मेल काढी नांख, स्वछंदनो बचाव छोडी दे ने विकारनी रुचि छोडीने
ज्ञानस्वभावनी प्रतीतनो उद्यम कर.
[१६५] समकीतिनी अद्भूत दशा!
प्रश्न:– क्रमबद्धपर्यायनी खरी समजण केवी रीते थाय?
उत्तर:– ‘हुं ज्ञायक छुं’ –एम ज्ञाता तरफ वळीने; पोतानी द्रष्टिने ज्ञायकस्वभाव तरफ वाळे तेने ज
क्रमबद्धपर्यायनी खरी समजण थाय छे, ए सिवाय थती नथी. आ रीते क्रमबद्धपर्याय माननारनी द्रष्टि क्रोधादि
उपर न होय, पण ज्ञायक उपर ज होय; ने ज्ञायकद्रष्टिना परिणामनमां क्रोधादि रहेता नथी. ज्ञायकस्वभावनी
द्रष्टिनुं आवुं परिणमन थया वगर जीवने साचो संतोष थाय नहि, समाधान थाय नहि; ने समकीतिने आवी
द्रष्टिनुं परिणकन थतां ते बृतबृत्य थल गया, तेने बधा समाधान थई गया; ज्ञायकपणाना पस्रणमनमां तेने
कोईनुं अभिमान पण न रह्युं, तेमज पोतामां प्रमाद पण ना रह्यो ने उतावळ पण न रही. ज्ञातापणाना
परिणमननी ज धारा चाली रही छे तेमां आकुळता पण केवी? ने प्रमाद पण केवो? –आवी समकीति
अद्भुतदशा छे!
[१६६] ज्ञातापणाथी च्यूत थईने अज्ञानी कर्ता थाय छे.
एक तरफ ज्ञाता–भगवान, ने सामे पदार्थोनुं क्रकबद्धपरिणमन,–तेनो आत्मा ज्ञाता ज छे, एवो मेळ छे,
तेने बदले ते मेळ तोडीने (एटले के पोते पोताना ज्ञातास्वभावथी च्यूत थईने), जे जीव कर्ता थईने परना
क्रमने फेरववा मांगे छे, ते जीव परना क्रमने तो फेरवी शकतो पण तेनी द्रष्टिमां विषमता (मिथ्यात्व) थाय छे.
ज्ञायकपणानो निर्मळ प्रवाह चालवो जोईए तेने बदले ऊंधी द्रष्टिने लीधे ते विकारना कर्तापणे परिणमे छे.
[१६७] सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान कयारे थाय?
जेने पोतानुं हित करवुं होय–एवा जीवने माटे आ वात छे. हित सत्यथी थाय पण असत्यथी न थाय.
सत्यना स्वीकार वगर साचुं ज्ञान थाय नहि, ने सम्यक् ज्ञान वगर धर्म के हित थाय नहि. जेणे पोताना
ज्ञानमांथी असत्यपणुं टाळीने सत्यपणुं करवुं होय तेणे शुं करवुं–तेनी आ वात छे.