Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ५१ :
जेवो पदार्थ छे तेवी ज तेनी श्रद्धा करे, अने जेवी श्रद्धा छे तेवो ज पदार्थ होय,–तो ते श्रद्धा साची छे; ए
ज प्रमाणे जेवो पदार्थ छे तेवुं ज तेनुं ज्ञान करे, अने जेवुं ज्ञान छे तेवो ज पदार्थ होय,–तो ते ज्ञान साचुं छे.
“आत्मा ज्ञायकस्वरूप छे, ज्ञायकपणुं ते ज जीवतत्त्वनुं खरुं स्वरूप छे; ने पदार्थो क्रमबद्धपर्यायपणे
स्वयं परिणमनारा छे, आ ‘ज्ञायक’ पोताना ज्ञान सहित तेमनो ज्ञाता छे, पण ते कोईना क्रमने फेरवीने
आघुंपाछुं करनार नथी”– आवा वस्तु स्वरूपनी श्रद्धा अने ज्ञान करे तो ते श्रद्धा–ज्ञान साचा थाय, एटले
हित अने धर्म थाय.
[१६८] मिथ्या श्रद्धा–ज्ञाननो विषय जगतमां नथी.
–पण कोई एम माने के ‘हुं कर्ता थईने परनी अवस्थाने फेरवी दउं, एटले के मारे पर साथे
कार्यकारणपणुं छे’–तो तेनी मान्यता मिथ्या छे, केम के तेनी मान्यता प्रमाणे वस्तुस्वरूप जगतमां नथी. मिथ्या
श्रद्धानो (तेमज मिथ्या ज्ञाननो) विषय जगतमां नथी. जेम जगतमां ‘गधेडानुं शींगडुं’ ए कोई वस्तु ज नथी,
तेथी ‘गधेडानुं शींगडुं’ एवी श्रद्धा के ज्ञान ते मिथ्या ज छे. तेम ‘पर साथे कार्यकारणपणुं होय’ एवी कोई वस्तु
ज जगतमां नथी, छतां ‘हुं परनुं करुं– एम पर साथे कार्य–कारणपणुं’ जे माने छे तेनी श्रद्धा अने ज्ञान मिथ्या
ज छे; केम के तेनी मान्यता प्रमाणे कोई विषय जगतमां नथी. अहीं एम न समजवुं के–जेम ‘गधेडानुं शींगडुं’
अथवा तो ‘पर साथे कार्यकारणपणुं’ जगतमां नथी तेम मिथ्याश्रद्धा पण नथी. मिथ्याश्रद्धा–ज्ञान तो अज्ञानीनी
पर्यायमां छे, पण तेनी श्रद्धा प्रमाणे वस्तुस्वरूप जगतमां नथी. अज्ञानीनी पर्यायमां मिथ्याश्रद्धा तो ‘सत्’ छे,
पण तेनो विषय ‘असत्’ छे अर्थात् तेनो कोई विषय जगतमां नथी.
जुओ, अहीं कह्युं के ‘मिथ्याश्रद्धा सत् छे’ एटले शुं?–के जगतमां मिथ्याश्रद्धानुं होवापणुं (–सत्पणुं)
छे, मिथ्याश्रद्धा छे ज नहि–एम नथी; पण ते मिथ्याश्रद्धाना अभिप्राय प्रमाणे कोई वस्तु जगतमां नथी. जो ते
श्रद्धा प्रमाणे वस्तुनुं स्वरूप न होय तो तेने मिथ्याश्रद्धा न कहेवाय.
[१६९] आमां शुं करवानुं आव्युं?
अहीं एक वात चाले छे के आत्मानुं ज्ञायकपणुं अने बधी वस्तुनी पर्यायोनुं क्रमबद्धपणुं मान्या वगर
श्रद्धा–ज्ञान साचा थता नथी, ने साचा श्रद्धा–ज्ञान वगर हित के धर्म थतो नथी.
कोई पूछे के–आमां शुं करवानुं आव्युं? तो तेनो उत्तर ए छे के–पहेला परनुं कर्तापणुं मानीने विकारमां
एकाग्र थतो हतो, तेने बदले हवे ज्ञानस्वभावमां एकाग्रता करीने ज्ञाता–द्रष्टा रह्यो. ते ज्ञाताद्रष्टापणामां
अतीन्द्रियआनंदनुं वेदन, स्वभावनो पुरुषार्थ वगेरे पण भेगुं ज छे.
[१७०] ज्ञायकसन्मुख द्रष्टिनुं परिणमन, ए ज सम्यक्त्वनो पुरुषार्थ.
ज्ञायकस्वभावनो निर्णय करीने जेणे क्रमद्धपर्याय मानी तेने स्वसन्मुख पुरुषार्थ पण भेगो ज आवी
गयो छे. ज्ञायकस्वभाव सन्मुख जे परिणमन थयुं तेमां पुरुषार्थ कांई जुदो रही जतो नथी, पुरुषार्थ पण भेगो
ज परिणमे छे. ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि, क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय, स्वसन्मुख पुरुषार्थ, के सम्यग्दर्शन–ए बधा
कांई जुदा जुदा नथी, पण एक ज छे. एटले कोई एम कहे के “अमे ज्ञायकनो ने क्रमबद्धनो निर्णय तो कर्यो,
पण हजी सम्यग्दर्शननो पुरुषार्थ करवानो बाकी रह्यो छे” तो एनो निर्णय साचो नथी; केमके जो
ज्ञायकस्वभावनो ने क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय होय तो सम्यग्दर्शननो पुरुषार्थ तेमां आवी ज जाय छे.
[१७१] ज्ञायकस्वभावना आश्रये ज निर्मळपर्यायनो प्रवाह.
स्वसन्मुख पुरुषार्थ वडे ज्ञायकस्वभावनो आश्रय करतां सम्यग्दर्शन थाय, छतां ते क्रमबद्ध छे.
ज्ञायकस्वभावनो आश्रय करतां मुनिदशा थाय, छतां ते क्रमबद्ध छे.
ज्ञायकस्वभावनो आश्रय करतां शुक्लध्यान थाय, छतां ते क्रमबद्ध छे.
ज्ञायकस्वभावनो आश्रय करतां केवळज्ञान अने मोक्षदशा थाय, छतां ते पण क्रमबद्ध छे.