
ज्ञायकस्वभावनो आश्रय कर्या विना कोईने पण निर्मळपर्यायनो क्रम शरू थई जाय–एम बनतुं नथी.
निमित्त उपर, राग उपर के भेद उपर नथी, पण अक्रम एवा चैतन्यस्वभाव उपर ज तेनी द्रष्टिनुं जोर छे, ने ए ज
साचो पुरुषार्थ छे. अंतरमां पोताना ज्ञायकस्वभावने ज स्वज्ञेय बनावीने ज्ञान एकाग्र थयुं, ते ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र ने मोक्षनुं कारण छे.
दलील करे छे के “ईश्वरनुं कर्तृत्व माने त्यां तो भक्ति वगेरेथी ईश्वरने राजी करीने तेमां फेरफार पण करावी
शकाय, पण आ क्रमबद्धपर्यायनो सिद्धांत तो एवो आकरो के ईश्वर पण तेमां फेरफार न करी शके!”–अरे
भाई! तारे तारामां ज्ञायकपणे रहेवुं छे के कोईमां फेरफार करवा जवुं छे? शुं परमां क्यांय फेरफार करीने तारे
सर्वज्ञना ज्ञानने खोटुं ठराववुं छे? आत्माना ज्ञानस्वभावने तारे मानवो छे के नहि? ज्ञानस्वभावी आत्मा
पासेथी ज्ञाताद्रष्टापणा सिवाय बीजुं कयुं काम तारे लेवुं छे? ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करीने ज्ञायकभावपणे
परिणमवुं तेमां आखो मोक्षमार्ग समाई जाय छे.
परनो संग छोडीने, अंतरमां ज्ञायकस्वभावनो संग करे तेने ज्ञेयोनी क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय थई जाय छे एटले
ते ज्ञाता ज रहे छे, एकत्वबुद्धिपूर्वकना राग–द्वेष तेने क्यांय पण थता ज नथी. शिष्यनी ज्ञानादि पर्याय तेनाथी
क्रमबद्ध थाय छे, हुं तेनुं शुं करीश? हुं तो ज्ञाता ज छुं–एम जाण्युं त्यां ज्ञानीने तेना प्रत्ये एकत्वबुद्धिथी राग के
द्वेष (–शिष्य होशियार होय तो राग, ने शिष्यने न आवडे तो द्वेष) थतो ज नथी, ने ए प्रमाणे क्यांय पण
ज्ञानीने एकत्वबुद्धिथी रागादि थता नथी; तेने तो पोताना ज्ञानस्वभावमां एकत्वबुद्धिथी निर्मळ ज्ञानादि
परिणाम ज थाय छे.
समवाय आवी जाय छे.
पोतानी क्रमबद्धपर्यायनुं कार्य–कारणपणुं समये समये थई रह्युं छे, ने ते ज वखते सामे जगतना बीजा बधा
द्रव्योमां पण सौ–सौनी पर्यायनुं कारण–कार्यपणुं बनी ज रह्युं छे; परंतु सर्वे द्रव्योने अन्य द्रव्यो साथे कारण–
कार्यपणानो अभाव छे. आवी वस्तुस्थिति समजे तो, हुं कारण थईने परनुं कांई पण करी दउं–एवो गर्व क्यां
रहे छे? आ समजे तो भेदज्ञान थईने, ज्ञायकस्वभाव तरफ झूकाव थई जाय. जीवने पोताना ज्ञायकस्वभाव
तरफ वाळवा माटे आ वात समजावे छे. पोताना ज्ञायकस्वभाव उपर जेनी द्रष्टि नथी, क्रमबद्धपर्यायपणे दरेक
वस्तु पोते ज स्वयं ऊपजे छे तेनी जेने खबर नथी, ने रागादि वडे परनी अवस्थामां फेरफार करवानुं माने छे
एवा जीवने समजावे