Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: ५२ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
आ रीते ज्ञायकस्वभावना आश्रये ज निर्मळ पर्यायनो प्रवाह वहे छे. ज्ञायकस्वभावनो आश्रय जे नथी
करतो तेने क्रमबद्धपर्यायमां निर्मळप्रवाह शरू थतो नथी पण मिथ्यात्व चालु ज रहे छे. स्वसन्मुख पुरुषार्थ वडे
ज्ञायकस्वभावनो आश्रय कर्या विना कोईने पण निर्मळपर्यायनो क्रम शरू थई जाय–एम बनतुं नथी.
[१७२] एकला ज्ञायक उपर ज जोर.
जुओ, आमां जोर क्यां आव्युं? एकला ज्ञायकस्वभावना अवलंबन उपर ज बधुं जोर आव्युं. काळना
प्रवाह सामे जोईने बेसी रहेवानुं न आव्युं, पण ज्ञायक सामे जोईने तेमां एकाग्र थवानुं आव्युं. ज्ञानीनी द्रष्टिनुं जोर
निमित्त उपर, राग उपर के भेद उपर नथी, पण अक्रम एवा चैतन्यस्वभाव उपर ज तेनी द्रष्टिनुं जोर छे, ने ए ज
साचो पुरुषार्थ छे. अंतरमां पोताना ज्ञायकस्वभावने ज स्वज्ञेय बनावीने ज्ञान एकाग्र थयुं, ते ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र ने मोक्षनुं कारण छे.
[१७३] –तारे ज्ञायक रहेवुं छे? के परने फेरववुं छे?
ज्ञायकस्वभावसन्मुख थईने क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता थयो तेनुं फळ वीतरागता छे, ने ते ज जैनशासननो
सार छे. जेने ज्ञानस्वभावनी खबर नथी, सर्वज्ञनी श्रद्धा नथी,–एवा लोको आ ‘क्रमबद्धपर्याय’नी सामे एवी
दलील करे छे के “ईश्वरनुं कर्तृत्व माने त्यां तो भक्ति वगेरेथी ईश्वरने राजी करीने तेमां फेरफार पण करावी
शकाय, पण आ क्रमबद्धपर्यायनो सिद्धांत तो एवो आकरो के ईश्वर पण तेमां फेरफार न करी शके!”–अरे
भाई! तारे तारामां ज्ञायकपणे रहेवुं छे के कोईमां फेरफार करवा जवुं छे? शुं परमां क्यांय फेरफार करीने तारे
सर्वज्ञना ज्ञानने खोटुं ठराववुं छे? आत्माना ज्ञानस्वभावने तारे मानवो छे के नहि? ज्ञानस्वभावी आत्मा
पासेथी ज्ञाताद्रष्टापणा सिवाय बीजुं कयुं काम तारे लेवुं छे? ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करीने ज्ञायकभावपणे
परिणमवुं तेमां आखो मोक्षमार्ग समाई जाय छे.
[१७४] ज्ञानी ज्ञाता ज रहे छे, ने तेमां पांचे समवाय आवी जाय छे.
एकवार आवा ज्ञायकस्वभावनो निर्णय करे तो ज्ञातापणुं थई जाय ने परना कर्तापणानुं अभिमान
ऊडी जाय, एटले पर प्रत्ये एकत्वबुद्धिना अनंतानुबंधी राग–द्वेष हर्ष–शोकनो तो भुक्को थई गयो. रागनो ने
परनो संग छोडीने, अंतरमां ज्ञायकस्वभावनो संग करे तेने ज्ञेयोनी क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय थई जाय छे एटले
ते ज्ञाता ज रहे छे, एकत्वबुद्धिपूर्वकना राग–द्वेष तेने क्यांय पण थता ज नथी. शिष्यनी ज्ञानादि पर्याय तेनाथी
क्रमबद्ध थाय छे, हुं तेनुं शुं करीश? हुं तो ज्ञाता ज छुं–एम जाण्युं त्यां ज्ञानीने तेना प्रत्ये एकत्वबुद्धिथी राग के
द्वेष (–शिष्य होशियार होय तो राग, ने शिष्यने न आवडे तो द्वेष) थतो ज नथी, ने ए प्रमाणे क्यांय पण
ज्ञानीने एकत्वबुद्धिथी रागादि थता नथी; तेने तो पोताना ज्ञानस्वभावमां एकत्वबुद्धिथी निर्मळ ज्ञानादि
परिणाम ज थाय छे.
ज्ञायकभावनुं जे परिणमन थयुं ते ज तेनो स्वकाळ छे, ते ज तेनुं नियत छे, ते ज तेनो स्वभाव छे, ते
ज तेनो पुरुषार्थ छे, ने तेमां कर्मनो अभाव छे. आ रीते ज्ञायकभावना परिणमनमां ज्ञानीने एक साथे पांचे
समवाय आवी जाय छे.
[१७५] अहीं जीवने तेनुं ज्ञायकपणुं समजावे छे.
जीव क्रमबद्ध पोतानी ज्ञानादि पर्यायपणे ऊपजे छे तेथी तेने पोतानी पर्याय साथे कारण–कार्यपणुं छे,
पण परनी साथे तेने कारण–कार्यपणुं नथी. एक द्रव्यमां बीजा द्रव्यना कारण–कार्यनो अभाव छे. आ द्रव्यमां
पोतानी क्रमबद्धपर्यायनुं कार्य–कारणपणुं समये समये थई रह्युं छे, ने ते ज वखते सामे जगतना बीजा बधा
द्रव्योमां पण सौ–सौनी पर्यायनुं कारण–कार्यपणुं बनी ज रह्युं छे; परंतु सर्वे द्रव्योने अन्य द्रव्यो साथे कारण–
कार्यपणानो अभाव छे. आवी वस्तुस्थिति समजे तो, हुं कारण थईने परनुं कांई पण करी दउं–एवो गर्व क्यां
रहे छे? आ समजे तो भेदज्ञान थईने, ज्ञायकस्वभाव तरफ झूकाव थई जाय. जीवने पोताना ज्ञायकस्वभाव
तरफ वाळवा माटे आ वात समजावे छे. पोताना ज्ञायकस्वभाव उपर जेनी द्रष्टि नथी, क्रमबद्धपर्यायपणे दरेक
वस्तु पोते ज स्वयं ऊपजे छे तेनी जेने खबर नथी, ने रागादि वडे परनी अवस्थामां फेरफार करवानुं माने छे
एवा जीवने समजावे