
करनार नथी पण जाणनार छो, माटे तारा जाणनार स्वभावनी प्रतीत कर, अने जाणनारपणे ज रहे,–एटले
के ज्ञानस्वभावमां ज एकाग्र था; ए ज तारुं खरुं कार्य छे.
बनतुं नथी. आत्मा अने जड बन्नेमां समये समये पोतपोतानुं नवुं नवुं कार्य उत्पन्न थाय छे, अने ते पोते
तेमां तद्रूप होवाथी तेनुं कारण छे; आ प्रमाणे दरेक वस्तुने पोतामां समये समये नवुं नवुं कार्य–कारणपणुं
बनी ज रह्युं छे; छतां तेमने एकबीजा साथे कार्य–कारणपणुं नथी. जेवुं ज्ञान होय तेवी भाषा निकळे, अथवा
जेवा शब्दो होय तेवुं ज अहीं ज्ञान थाय, तो पण ज्ञानने अने शब्दने कारणकार्यपणुं नथी. ईच्छा प्रमाणे
भाषा बोलाय त्यां अज्ञानी एम माने छे के मारा कारणे भाषा बोलाणी; अथवा शब्दोना कारणे मने तेवुं
ज्ञान थयुं–एम ते माने छे. पण बन्नेना स्वाधीन परिणमनने ते जाणतो नथी. दरेक वस्तु समये समये नवा
नवा कारण–कार्यपणे परिणमे छे, ने निमित्तपण नवा नवा थाय छे, छतां तेमने परस्पर कार्य–कारणपणुं
नथी; पोताना कारण–कार्य पोतामां, ने निमित्तना कारण–कार्य निमित्तमां. भेदज्ञानथी आवुं वस्तुस्वरूप जाणे
तो ज्ञाननो विषय साचो थाय, एटले सम्यग्ज्ञान थाय.
ज्ञायकपणानो तो निर्णय कर...ज्ञायकनो निर्णय करतां तने क्रमबद्धनी प्रतीत पण थई जशे, एटले अनादिनुं
ऊंधुंं परिणमन छूटीने सवळुं परिणमन शरू थई जशे. आ रीते ऊंधा रस्तेथी छोडावीने स्वभावना सवळा
रस्ते चडाववानी आ वात छे. जेम लग्नना मांडवे जवाने बदले कोई मसाणमां जई चडे, तेम अज्ञानी,
पोताना ज्ञायकस्वभावनी लगनी करीने तेमां एकाग्र थवाने बदले, रस्तो भूलीने ‘हुं परनुं करुं’ एवी ऊंधी
द्रष्टिथी भवभ्रमणना रस्ते जई चडयो. अहीं आचार्यदेव तेने ज्ञायकस्वभावनुं अकर्तापणुं बतावीने सवळे
रस्ते (–मोक्षना मार्गे) चडावे छे. ‘हुं ज्ञायकस्वरूप छुं’–एवी ज्ञायकनी लगनी छोडीने मूढ अज्ञानी जीव,
परनी कर्ताबुद्धिथी आत्मानी श्रद्धा ज्यां खाख थई जाय छे एवा मिथ्यात्वरूपी स्मशानमां जई चडयो.
आचार्यदेव तेने कहे छे के भाई! तारुं ज्ञायकजीवन छे, तेनो विरोध करीने बाह्यविषयोमां एकताबुद्धिने लीधे
तने आत्मानी श्रद्धामां क्षय लागु पड्यो छे, आ तारो क्षय रोग मटाडवानी दवा छे, ज्ञायक स्वभावनी सन्मुख
थईने क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय कर, तो तारी कर्ताबुद्धि टळे ने क्षय रोग मटे, एटले के मिथ्या श्रद्धा टळीने
सम्यक्श्रद्धा थाय. अत्यारे घणा जीवोने आ निर्णय करवो कठण पडे छे, पण आ तो खास जरूरनुं छे; आ
निर्णय कर्या वगर भवभ्रमणनो अनादिनो रोग मटे तेम नथी. मारो ज्ञायकस्वभाव परनो अकर्ता छे, हुं
मारा ज्ञायकपणाना क्रममां रहीने, क्रमबद्धपर्यायनो जाणनार छुं–आवो निर्णय न करे तेने अनंत
संसारभ्रमणना कारणरूप मिथ्याश्रद्धा टळती नथी.
जो अव्यवस्थित कहो तो ज्ञान ज सिद्ध न थाय; अव्यवस्थित परिणमन होय तो केवळज्ञान त्रणकाळनुं
शेनां जुए? श्रुतज्ञान शुं नक्की करे? हजारो–लाखो के असंख्य वर्षो पछी, भविष्यनी चोवीसीमां आ ज
चोवीस जीवो तीर्थंकर थशे–ए बधुं कई रीते नक्की थाय? सात वारमां कया वार पछी क्यो वार आवशे, ने
अठ्ठावीस नक्षत्रमां