Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: ५६ : ‘आत्मधर्म’ २४८१ : कारतक :
ज्ञायक उपर द्रष्टि करतां निमित्त–नैमित्तिकसंबंधनी द्रष्टि पण छूटी जाय छे. निमित्तनैमित्तिकसंबंध उपर ज जेनी
द्रष्टि छे तेनी द्रष्टि पर उपर छे, अने ज्यां सुधी पर उपर द्रष्टि छे त्यां सुधी निर्विकल्प प्रतीतिरूप सम्यक्त्व थतुं
नथी. एकला ज्ञायकस्वभावने द्रष्टिमां लईने एकाग्र थाय त्यारे ज सम्यग्दर्शन थाय छे ने निर्विकल्प आनंदनुं
वेदन थाय छे. आवी दशा वगर धर्मनी शरूआत थती नथी.
[१८६] फरवुं पडशे, जेने आत्महित करवुं होय तेणे!
अहो, आत्माना हितनी आवी सरस वात!! आवी वातने एकांतवाद कहेवो के गृहीत मिथ्याद्रष्टिना
नियतवादनी साथे आनी सरखामणी करवी ते तो जैनशासननो ज विरोध करवा जेवो मोटो गजब छे!
“स्याद्वाद नथी, एकांत छे, नियत छे, रोगचाळो छे”–ईत्यादि कहीने विरोध करनारा बधायने फरवुं पडशे, आ
वात त्रणकाळमां फरे तेम नथी. आनाथी विरुद्ध कहेनारा भले गमे तेवा मोटा त्यागी के विद्वान गणाता होय तो
पण ते बधायने फरवुं पडशे,–जो आत्मानुं हित साधवुं होय तो.
[१८७] गंभीर रहस्यनुं दोहन.
आचार्यभगवाने आ चार गाथाओमां (३०८ थी ३११मां) पदार्थस्वभावनो अलौकिक नियम गोठवी
दीधो छे, ने अमृतचंद्राचार्यदेवे टीका पण एवी ज अद्भुत करी छे. कुंदकुंदाचार्यदेवे टूंकामां द्रव्यानुयोगने
गंभीरपणे समाडी दीधो छे, ने अमृतचंद्राचार्यदेवे टीकामां ते स्पष्ट करीने खूल्लुं मूकयुं छे. जेम भेंसना पेटमां
दूध भर्युं होय ते ज दोवाईने बहार आवे छे, तेम सूत्रमां ने टीकामां जे रहस्य भर्युं छे तेनुं ज आ दोहन थाय
छे, मूळमां छे तेनो ज आ विस्तार थाय छे.
[१८८] आखाद्रव्यने साथे ने साथे राखीने अपूर्व वात!
जीव पोताना क्रमबद्धपरिणामोथी ऊपजतो होवा छतां, अजीवनी साथे तेने कारण–कार्यपणुं नथी. अहीं
तो आचार्यदेव कहे छे के ‘दवियं जं उप्पज्जइ’....एटले के समये समये पोताना नवा नवा क्रमबद्ध
परिणामपणे द्रव्य ज पोते ऊपजे छे. पहेला समये कारण–कार्यरूपे जे द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भाव छे ते चारे बीजा
समये गुलांट मारीने बीजा समयना कारण–कार्यरूपे परिणमी जाय छे; एकला परिणाम ज पलटे छे ने द्रव्य
नथी पलटतुं–एम नथी, केमके परिणामपणे द्रव्य पोते ऊपजे छे. घंटीना बे पडनी माफक द्रव्यने अने पर्यायने
जुदापणुं नथी, एटले जेम घंटीमां उपलुं पड फरे छे ने नीचलुं तद्न स्थिर रहे छे, तेम अहीं पर्याय ज परिणमे
छे ने द्रव्य परिमतुं ज नथी–एम नथी. पर्यायपणे कोण परिणम्युं? के वस्तु पोते. आत्मा अने तेना अनंता
गुणो, समये समये नवी नवी पर्यायपणे ऊपजे छे, ते पर्यायमां ते तद्रूप छे. आथी पर्यायअपेक्षाए जोतां द्रव्य–
क्षेत्र–काळ ने भाव चारे य बीजा समये पलटी गया छे. द्रव्य अने गुण अपेक्षाए सद्रशता ज होवा छतां, पहेला
समयना जे द्रव्य–क्षेत्र–भाव छे ते पहेला समयनी ते पर्यायपणे ऊपजेला(–परिणमेला) छे, अने बीजा समये
ते द्रव्य–क्षेत्रभाव त्रणे पलटीने बीजा समयनी ते पर्यायपणे ऊपजे छे. ए प्रमाणे क्रमबद्धपर्यायपणे द्रव्य पोते
परिणमे छे. बीजा समये पर्याय ‘एवी ने एवी’ भले थाय, पण द्रव्यने पहेला समये जे तद्रूपपणुं हतुं ते
पलटीने बीजा समये बीजी पर्याय साथे तद्रूपपणुं थयुं छे. अहो, पर्याये पर्याये आखा द्रव्यने साथे ने साथे
लक्षमां राख्युं छे. द्रव्यनुं आ स्वरूप समजे तो पर्याये–पर्याये द्रव्यनुं अवलंबन वर्त्या ज करे एटले द्रव्यनी
द्रष्टिमां निर्मळ–निर्मळ पर्यायोनी धारा चाले.... एवी अपूर्व आ वात छे.
[१८९] –छूटवानो मार्ग.
पर्यायपणे ऊपज्युं कोण? के द्रव्य! एटले पोताने पोताना ज्ञायकद्रव्य सामे ज जोवानुं रहे छे; बीजो
आवीने आनुं कांई करी द्ये, के आ कोई बीजानुं करवा जाय– ए वात क्यां रहे छे? भाई! आ वात समजीने तुं
स्वसन्मुख था... तारा ज्ञायकस्वभाव सन्मुख था. आ सिवाय बीजो कोई हितनो रस्तो नथी. छूटवानो रस्तो
तारामां ज पड्यो छे, अंतरना ज्ञायकस्वरूपने पकडीने तेमां एकता कर तो छूटवानो मार्ग तारा हाथमां ज छे;
आ सिवाय बहारना लाख उपाय कर्ये पण छूटकारो (मुक्तिनो मार्ग) हाथ आवे तेम नथी.
[१९०] ‘ज्ञायक’ ज ज्ञेयोनो ज्ञाता छे.
पोताना क्रमबद्धपरिणाममां तद्रूप वर्ततुं द्रव्य