: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ५७ :
प्रवाह क्रममां दोडयुं ज जाय छे, आयत सामान्य एटले के दोडतो प्रवाह तेमां तद्रूपपणे द्रव्य ऊपजे छे. द्रव्यना
प्रदेशो बधा एक साथे (विस्तार सामान्य समुदायरूपे) रहेला छे, ने पर्यायो एक पछी एक क्रमबद्ध प्रवाहपणे
वर्ते छे. द्रव्यना क्रमबद्ध परिणमननी धाराने रोकवा, तोडवा के फेरववा कोई समर्थ नथी. हुं ज्ञायक, जगतना
द्रव्य–गुण–पर्याय जेम सत् छे तेम तेनो जाणनार छुं–आम पोताना ज्ञायकस्वभावनो निर्णय करवानी आ वात
छे. ज्ञायकनो निर्णय करे ते ज ज्ञेयोने यथार्थपणे जाणे छे.
[१९१] आ छे, ज्ञायकस्वभावनुं अकर्तापणुं.
द्रव्य–क्षेत्र ने भाव, पहेला समये ते पर्यायमां तद्रूप छे, ते पर्याय पलटीने बीजी पर्याय थई, त्यारे बीजा
समये ते पर्यायमां तद्रूप छे. ए रीते वस्तुना द्रव्य–क्षेत्र–काळ ने भाव चारेय समये समये पलटीने नवी नवी
अवस्थापणे ऊपजे छे, तेथी तेनी साथे ज तेने कारण–कार्यपणुं छे, पण बीजानी साथे कारण–कार्यपणुं नथी.
जुओ, आ ज्ञायकस्वभावनुं अकर्तापणुं!
(१) ज्ञायकस्वभाव परथी तो भिन्न, (२) रागादिना भावोथी पण भिन्न,
(३) एक पर्याय, आगळ–पाछळनी बीजी अनंत पर्यायोथी भिन्न,
(४) एक गुण बीजा अनंत गुणोथी भिन्न, अने
(प) द्रव्य–गुणने पहेला समये जे पर्याय साथे तद्रूपपणुं हतुं ते तद्रूपपणुं बीजा समये नथी रह्युं, पण
बीजा समये बीजी पर्याय साथे तद्रूपपणुं थयुं छे.
–जुओ आ सत्यनुं श्रद्धान थवानी रीत! आ वात लक्षमां लेतां आखुं ज्ञायकद्रव्य नजर सामे आवी
जाय छे.
[१९२] ‘जीवंत वस्तुव्यवस्था अने ज्ञायकनुं जीवन’–तेने जे नथी जाणतो ते मूढ माने छे–
‘मरेला जीवतुं, ने जीवताने मरेलुं!’
जेम कोई अज्ञानी प्राणी मडदाने जीवतुं मानीने तेने जीवाडवा मांगे–खवराववा पीवराववा मांगे, तो
कांई मडदुं जीवतुं थाय नहि ने आनुं दुःख मटे नहि. (अहीं रामचंद्रजीनो दाखलो नथी आपता, केम के
रामचंद्रजी तो ज्ञानी समकीति हता.) पण मडदाने मडदा तरीके जाणे तो तेनी भ्रमणानुं दुःख टळे. तेम पर वस्तु
साथे कर्ताकर्मपणानो अत्यंत अभाव ज छे (मडदानी माफक) छतां परनुं हुं करुं एम जे माने छे ते अभावने
अभाव तरीके न मानतां, परनो पोतामां सद्भाव माने छे, ते ऊंधी मान्यताथी ते दुःखी ज छे.
अथवा, जेम कोई जीवताने मरेलुं माने तो ते मूढ छे, तेम आत्मा ज्ञायकस्वभावे जीवतो छे, ज्ञायकपणुं
ज तेनुं जीवन छे, तेने बदले तेने परनो कर्ता माने छे ते ज्ञायकजीवनने हणी नांखे छे, एटले ते मोटो हिंसक छे.
वळी परवस्तु पण जीवती (–स्वयं परिणमती) छे, तेने बदले हुं तेने परिणमावुं एम जेणे मान्युं तेणे पर
वस्तुने जीवती न मानी पण मरेली एटले के परिणमन वगरनी मानी. स्वतंत्र परिणमती वस्तुने पर साथे
कर्ता–कर्मपणुं जे माने छे ते जीवंत वस्तुव्यवस्थाने जाणतो नथी. समयसार (पृ. ४२३) मां पण कह्युं छे के
“जेनुं जे होय ते ते ज होय, जेम के–आत्मानुं ज्ञान होवाथी ज्ञान ते आत्मा ज छे’–आवो तात्त्विक संबंध जीवंत
छे.” जुओ, आ जीवंत संबंध!! आत्माने पोताना ज्ञानादि साथे एकतानो संबंध जीवंत छे, पण पर साथे
कर्ताकर्मपणानो संबंध जरा पण जीवंत नथी. जो परद्रव्य आत्मानुं कार्य होय अर्थात् आत्मा परनुं कार्य करे, तो
ते परद्रव्य आत्मा ज थई जाय; केम के जे जेनुं कार्य होय ते तेनाथी जुदुं न होय. परंतु ज्ञायकआत्माने पर साथे
एवो तो कोई संबंध नथी. छतां जे पर साथे कर्ताकर्मनो संबंध माने छे ते ज्ञायकजीवनने हणी नांखे छे ने
मडदांने जीवतुं करवा मांगे छे, ते मूढ–मिथ्याद्रष्टि छे. दरेक द्रव्य स्वयं परिणमीने पोतपोतानी क्रमसर पर्यायमां
तद्रूपपणे वर्ते छे, –आवी जीवंत वस्तुव्यवस्था छे, तेने बदले बीजा वडे तेमां कांई फेरफार थवानुं माने, तो तेथी
कांई वस्तुव्यवस्था तो फरशे नहि पण तेम माननारो मिथ्याद्रष्टि थशे.
चारे कोरथी एक ज धारानी वात छे, पण पात्र थईने समजवा मांगे तेने ज समजाय तेवुं छे. द्रव्यना
क्रमबद्ध प्रवाहने कोई बीजो वच्चे आवीने फेरवी नांखे एवुं जीवंत वस्तुमां नथी, एटले स्वभावसन्मुख थईने
ज्ञायकभावपणे परिणम्यो, तेने ज्ञायकभावनी परिणमन धारामां वच्चे रागनुं कर्तापणुं आवी जाय एवुं
ज्ञायकना जीवनमां नथी,