Atmadharma magazine - Ank 133
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४८१ ‘आत्मधर्म’ : ५९ :
भावनी द्रष्टिथी क्रमबद्धपर्यायनुं स्वरूप जे समजे तेने पोतामां अज्ञान रहे ज नहि. ते एम जाणे छे के ज्ञानीने,
अज्ञानीने के जडने, बधायने क्रमबद्धपर्याय छे; पण तेमां–
ज्ञानीने पोताना ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिथी निर्मळ–निर्मळ क्रमबद्धपर्याय थाय छे,
अज्ञानीने ऊंधी द्रष्टिमां मलिन क्रमबद्धपर्याय थाय छे, अने
जडनी क्रमबद्धपर्याय जडरूप थाय छे.
–आवुं जाणनार ज्ञानीने पोतामां तो मिथ्यात्वादि मलिन पर्यायनो क्रम रहे ज नहि, केमके तेनो पुरुषार्थ
तो पोताना ज्ञायकस्वभाव तरफ वळी गयो छे, तेथी तेने तो सम्यग्दर्शनादि निर्मळ पर्यायनो क्रम शरू थई गयो
छे. जो आवी दशा न थाय तो ते खरेखर क्रमबद्धपर्यायनुं रहस्य समज्यो नथी पण मात्र वातो करे छे.
[१९८] ‘चैतन्य चमत्कारी हीरो.’
अहीं आचार्य भगवानने जीवने तेनुं ज्ञायकपणुं समजाव्युं छे: भाई! तारो आत्मा ज्ञायक छे....‘चैतन्य
चमत्कारी हीरो’ छे, तारो आत्मा समये समये ज्ञाताद्रष्टापणानी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजीने जाण एवो ज तारो
स्वभाव छे. कोई पर पदार्थोनी अवस्थाने फेरववानो स्वभाव नथी; माटे परनी कर्ताबुद्धि छोड ने तारा ज्ञायक
स्वभावनी सन्मुख थईने ज्ञायकपणे ज रहे.
[१९९] चैतन्य राजाने ज्ञायकभावनी राजगादीए बेसाडीने सम्यक्त्वना तिलक थाय छे.
त्यां विरोध करीने परने फेरववा मांगे छे तेनो दी’ फर्यो छे! (‘–रा’ नथी
फरतो...रा’नो दी’ फरे छे.’)
अहो, आवी परम सत्य वात समजावीने आचार्यदेव आत्माने तेना ज्ञायकस्वभावनी राजगादीए बेसाडे
छे....आत्मामां सम्यक्त्वनुं तिलक करे छे...परंतु, ऊंधी द्रष्टिवाळा मूढ जीवो आवी सत्य वातनो पण विरोध करे छे,
–एने ज्ञायकपणे नथी रहेवुं पण परना कर्तापणानुं अभिमान करीने हजी संसारमां रखडवुं छे. राजा रा’मांडलिकने
एकवार कोई जुवान चारणबाई तिलक करवा आवी; त्यारे, ते बाईनुं रूप जोईने राजानी द्रष्टि बगडी, तेथी ज्यां
ते बाई तिलक करवा जाय छे त्यां पोतानुं मोढुं बीजी दिशामां फेरवी लीधुं. बाई बीजी दिशामां तिलक करवा गई तो
रा’ए त्रीजी दिशामां मोढुं फेरव्युं. छेवटे बाईए पोतानी सासुने कह्युं के : “रा’ फरे छे.” तेनी सासु राजानुं हृदय
समजी गई तेथी तेणे जवाब आपतां कह्युं: “बेटा! रा’ नथी फरतो...रा’ नो दी फरे छे!”
तेम अहीं श्रीगुरु जीवने तेना ज्ञायकस्वभावना सिंहासने बेसाडीने, त्रण लोकना ज्ञानसाम्रज्यनुं
राजतिलक करे छे...‘अरे जीव! अंतरमां ज्ञायकभगवाननी प्रतीत करीने राज–स्थानमां बेसवानो (–उत्कृष्ट
स्वभावमां एकाग्र थवानो) अवसर आव्यो, सम्यग्दर्शनरूपी राजतिलक करवानुं टाणुं आव्युं... अरे!
चैतन्यराजा! बेस तारा ज्ञायकभावनी गादीए, आ तने तिलक थाय छे.’
....त्यां, जेने विकारनी रुचि छे एवा ऊंधी द्रष्टिवाळा मूढ जीवो (रा’मांडलिकनी जेम मोढुं फेरवीने) कहे छे
के ‘अरे! एम नहि.... एम नहि.... अमे तो परनुं फेरवी दईए....’ एटले एने ज्ञायकपणे नथी रहेवुं पण विकारी
द्रष्टि राखीने परने फेरववुं छे. पण अरे मूढ! ताराथी कोईनी पर्याय नहि फरे, तुं ज्ञायकसन्मुख नथी थतो ने पर
तरफ मोढुं फेरवे छे तो तारो दी’ फर्यो छे– तारी द्रष्टि ऊंधी थई छे; ज्ञायकस्वभावनी राजगादीए बेसीने
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रना तिलक करवानो अवसर आव्यो, त्यारे ज्ञायकस्वभावनी प्रतीत करीने स्वसन्मुख
थवाने बदले अज्ञानी ऊंधुंं माने छे ने ‘एकांत छे, रे! एकांत छे...’ एम कहीने विरोध करे छे, अरे! एनो दी’ फर्यो
छे, ज्ञायकसन्मुख थईने निर्मळ स्वकाळ थवो जोईए तेने बदले ते मिथ्यात्वने पोषे छे तेथी तेनो दी’ फर्यो छे.
[२००] ‘केवळीना नंदन’बतावे छे–केवळज्ञाननो पंथ!
भगवान! तारो आत्मा तो ज्ञायकस्वरूप छे, ते ज्ञायक रागादि भावोनो अकर्ता छे. ज्ञायकसन्मुख थतां
जे ज्ञानभाव प्रगट्यो तथा अतीन्द्रिय आनंदनुं वेदन प्रगट्युं तेनो कर्ता–भोक्ता आत्मा छे, पण रागादिनुं के
कर्मनुं कर्ता–भोक्तापणुं तेमां नथी. आवा चैतन्यमूर्ति ज्ञायकस्वभावने नक्की करीने ज्ञाताद्रष्टापणे रहेवुं ने तेमां
ठरवुं ए ज करवानुं छे. ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिथी ज्ञाता थईने पोतामां ठर्यो त्यां जीव रागादिनो