
अज्ञानीने के जडने, बधायने क्रमबद्धपर्याय छे; पण तेमां–
अज्ञानीने ऊंधी द्रष्टिमां मलिन क्रमबद्धपर्याय थाय छे, अने
जडनी क्रमबद्धपर्याय जडरूप थाय छे.
–आवुं जाणनार ज्ञानीने पोतामां तो मिथ्यात्वादि मलिन पर्यायनो क्रम रहे ज नहि, केमके तेनो पुरुषार्थ
छे. जो आवी दशा न थाय तो ते खरेखर क्रमबद्धपर्यायनुं रहस्य समज्यो नथी पण मात्र वातो करे छे.
स्वभाव छे. कोई पर पदार्थोनी अवस्थाने फेरववानो स्वभाव नथी; माटे परनी कर्ताबुद्धि छोड ने तारा ज्ञायक
स्वभावनी सन्मुख थईने ज्ञायकपणे ज रहे.
–एने ज्ञायकपणे नथी रहेवुं पण परना कर्तापणानुं अभिमान करीने हजी संसारमां रखडवुं छे. राजा रा’मांडलिकने
एकवार कोई जुवान चारणबाई तिलक करवा आवी; त्यारे, ते बाईनुं रूप जोईने राजानी द्रष्टि बगडी, तेथी ज्यां
ते बाई तिलक करवा जाय छे त्यां पोतानुं मोढुं बीजी दिशामां फेरवी लीधुं. बाई बीजी दिशामां तिलक करवा गई तो
रा’ए त्रीजी दिशामां मोढुं फेरव्युं. छेवटे बाईए पोतानी सासुने कह्युं के : “रा’ फरे छे.” तेनी सासु राजानुं हृदय
समजी गई तेथी तेणे जवाब आपतां कह्युं: “बेटा! रा’ नथी फरतो...रा’ नो दी फरे छे!”
स्वभावमां एकाग्र थवानो) अवसर आव्यो, सम्यग्दर्शनरूपी राजतिलक करवानुं टाणुं आव्युं... अरे!
चैतन्यराजा! बेस तारा ज्ञायकभावनी गादीए, आ तने तिलक थाय छे.’
द्रष्टि राखीने परने फेरववुं छे. पण अरे मूढ! ताराथी कोईनी पर्याय नहि फरे, तुं ज्ञायकसन्मुख नथी थतो ने पर
तरफ मोढुं फेरवे छे तो तारो दी’ फर्यो छे– तारी द्रष्टि ऊंधी थई छे; ज्ञायकस्वभावनी राजगादीए बेसीने
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रना तिलक करवानो अवसर आव्यो, त्यारे ज्ञायकस्वभावनी प्रतीत करीने स्वसन्मुख
थवाने बदले अज्ञानी ऊंधुंं माने छे ने ‘एकांत छे, रे! एकांत छे...’ एम कहीने विरोध करे छे, अरे! एनो दी’ फर्यो
छे, ज्ञायकसन्मुख थईने निर्मळ स्वकाळ थवो जोईए तेने बदले ते मिथ्यात्वने पोषे छे तेथी तेनो दी’ फर्यो छे.
कर्मनुं कर्ता–भोक्तापणुं तेमां नथी. आवा चैतन्यमूर्ति ज्ञायकस्वभावने नक्की करीने ज्ञाताद्रष्टापणे रहेवुं ने तेमां
ठरवुं ए ज करवानुं छे. ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिथी ज्ञाता थईने पोतामां ठर्यो त्यां जीव रागादिनो