Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: मागसर–पोष : २४८१ : आत्मधर्म : ७१ :
() ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।
() तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्। अने
() जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्।
––एम मोक्षशास्त्रमां उमास्वामी महाराजे कह्युं छे, त्यां आवा ज्ञायकभावपणे ऊपजता जीवद्रव्यने
ओळखे तो जीवतत्त्वनी साची प्रतीत छे. आवा जीवतत्त्वनी प्रतीत वगर तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन, के
मोक्षमार्गनी शरूआत थती नथी.
[२२] निमित्त अकिंचित्कर होवा छतां, सतमां सत् ज निमित्त होय.
हजी तो सात तत्त्वोमांथी जीवतत्त्व केवुं छे तेनी आ वात छे. आवा जीवने ओळखे तो साची श्रद्धा थाय,
ने त्यार पछी ज श्रावकपणुं के मुनिपणुं होय. वस्तुनुं स्वरूप तो आवुं छे, तेमां कांई बीजुं थाय तेम नथी. पोते
अंदर पात्र थईने समजे तो पकडाय तेवुं छे; बीजा कोई आपी द्ये के समजावी द्ये––एम नथी. जो बीजो आपे तो
वळी त्रीजो कोई आवीने लूंटी ल्ये! पण एम बनतुं नथी. आम छतां, ––एटले के निमित्त अकिंचित्कर होवा
छतां, सम्यग्ज्ञान पामनारने निमित्त केवुं होय ते जाणवुं जोईए. आत्मानुं अपूर्व ज्ञान पामनार जीवने सामे
निमित्त तरीके पण ज्ञानी ज होय. त्यां, सम्यग्ज्ञानरूपे परिणमेलो सामा ज्ञानीनो आत्मा ते ‘अंतरंग निमित्त’
छे अने ते ज्ञानीनी वाणी बाह्यनिमित्त छे. ए रीते सम्यग्ज्ञान पामवामां ज्ञानी ज निमित्त होय छे, अज्ञानी
निमित्त न होय, तेम ज एकली जडवाणी पण निमित्त न होय. ––आ वात नियमसारनी प३मी गाथाना
व्याख्यानमां बहु स्पष्टपणे कहेवाई गई छे. (जुओ, आत्मधर्म–गुजराती अंक ९९) सतमां केवुं निमित्त होय ते
न ओळखे तो अज्ञानी–मूढ छे, ने निमित्त कांई करी द्ये एम माने तो ते पण मूढ मिथ्याद्रष्टि छे.
[२३] आत्महितने माटे भेदज्ञाननी सीधी सादी वात.
जुओ, आ तो सीधी सादी वात छे के दरेक द्रव्य पोते ज पोतानी क्रमबद्धपर्यायपणे परिणमे छे, तो बीजो
तेमां शुं करे? ए उपरांत अहीं तो एम समजाववुं छे के भगवान आत्मा ज्ञायक छे, ते क्रमबद्ध पोताना
ज्ञायकभावपणे उपजतो थको ज्ञायकभावनी ज रचना करे छे, रागपणे ऊपजे के रागने रचे–एवुं जीवतत्त्वनुं
खरुं स्वरूप नथी, ते तो आस्रव अने बंधतत्त्वमां जाय छे. अंतरमां राग अने जीवनुं पण भेदज्ञान करवानी
आ वात छे. निमित्त कांई करे–एम माननारने तो हजी बहारनुं भेदज्ञान पण नथी–परथी भिन्नतानुं ज्ञान पण
नथी, तो पछी ‘ज्ञायकभाव ते रागनो कर्ता नथी’ एवुं अंतरनुं (ज्ञान अने राग वच्चेनुं) भेदज्ञान तो तेने
क्यांथी होय? पण जेने धर्म करवो होय–आत्मानुं कंई पण हित करवुं होय तेणे बीजुं बधुं एककोर मूकीने आ
समजवुं पडशे. भाई! तारा चैतन्यनो प्रकाशक स्वभाव छे, ते नवी नवी क्रमबद्धपर्याये ऊपजतो थको,
ज्ञायकस्वभावना भानपूर्वक रागादिने के निमित्तोने पण ज्ञातापणे जाणे ज छे, ज्ञातापणे ऊपजे छे पण रागना
कर्तापणे ऊपजतो नथी.
जीव रागना कर्तापणे नथी ऊपजतो, –तो शुं ते कूटस्थ छे? ––ना; ते पोताना ज्ञाताभावपणे ऊपजे छे,
तेथी कूटस्थ नथी. अहीं तो कह्युं के ‘जीव ऊपजे छे’ ––एटले के द्रव्य पोते परिणमतुं थकुं पोतानी पर्यायने द्रवे
छे, द्रव्य पोते पोतानी क्रमबद्धपर्यायरूपे परिणमे छे, ते कूटस्थ नथी तेम बीजो तेनो परिणमावनार नथी.
[२४] हे ज्ञायकचिदानंद प्रभु! तारा ज्ञायकतत्त्वने लक्षमां ले.
सर्वज्ञदेव, कुंदकुंदाचार्य–अमृतचंद्राचार्य वगेरे संतो, अने शास्त्रो आम कहे छे के ज्ञायकस्वरूपी जीव
रागादिनो अकर्ता छे. अरे भाई! तुं आवा जीवतत्त्वने माने छे के नहि? –के पछी निमित्तने अने रागने ज
माने छे? निमित्तने अने रागने पृथक राखीने ज्ञायकतत्त्वने लक्षमां ले, निमित्तने उपजावनार के रागपणे
ऊपजनार हुं नथी, हुं तो ज्ञायकपणे ज ऊपजुं छुं एटले हुं ज्ञायक ज छुं––एम अनुभव कर, तो तने सात
तत्त्वोमांथी पहेलां जीवतत्त्वनी साची प्रतीत थई कहेवाय, अने तो ज तें देव–गुरु–शास्त्रने खरेखर मान्या
कहेवाय.
हे ज्ञायकचिदानंदप्रभु! स्वसन्मुख थईने समये समये ज्ञाताभावपणे ऊपजवुं ते तारुं स्वरूप छे; आवा
तारा ज्ञायकतत्त्वने लक्षमां ले.