मोक्षमार्गनी शरूआत थती नथी.
वळी त्रीजो कोई आवीने लूंटी ल्ये! पण एम बनतुं नथी. आम छतां, ––एटले के निमित्त अकिंचित्कर होवा
छतां, सम्यग्ज्ञान पामनारने निमित्त केवुं होय ते जाणवुं जोईए. आत्मानुं अपूर्व ज्ञान पामनार जीवने सामे
निमित्त तरीके पण ज्ञानी ज होय. त्यां, सम्यग्ज्ञानरूपे परिणमेलो सामा ज्ञानीनो आत्मा ते ‘अंतरंग निमित्त’
छे अने ते ज्ञानीनी वाणी बाह्यनिमित्त छे. ए रीते सम्यग्ज्ञान पामवामां ज्ञानी ज निमित्त होय छे, अज्ञानी
निमित्त न होय, तेम ज एकली जडवाणी पण निमित्त न होय. ––आ वात नियमसारनी प३मी गाथाना
व्याख्यानमां बहु स्पष्टपणे कहेवाई गई छे. (जुओ, आत्मधर्म–गुजराती अंक ९९) सतमां केवुं निमित्त होय ते
न ओळखे तो अज्ञानी–मूढ छे, ने निमित्त कांई करी द्ये एम माने तो ते पण मूढ मिथ्याद्रष्टि छे.
ज्ञायकभावपणे उपजतो थको ज्ञायकभावनी ज रचना करे छे, रागपणे ऊपजे के रागने रचे–एवुं जीवतत्त्वनुं
खरुं स्वरूप नथी, ते तो आस्रव अने बंधतत्त्वमां जाय छे. अंतरमां राग अने जीवनुं पण भेदज्ञान करवानी
आ वात छे. निमित्त कांई करे–एम माननारने तो हजी बहारनुं भेदज्ञान पण नथी–परथी भिन्नतानुं ज्ञान पण
नथी, तो पछी ‘ज्ञायकभाव ते रागनो कर्ता नथी’ एवुं अंतरनुं (ज्ञान अने राग वच्चेनुं) भेदज्ञान तो तेने
क्यांथी होय? पण जेने धर्म करवो होय–आत्मानुं कंई पण हित करवुं होय तेणे बीजुं बधुं एककोर मूकीने आ
समजवुं पडशे. भाई! तारा चैतन्यनो प्रकाशक स्वभाव छे, ते नवी नवी क्रमबद्धपर्याये ऊपजतो थको,
ज्ञायकस्वभावना भानपूर्वक रागादिने के निमित्तोने पण ज्ञातापणे जाणे ज छे, ज्ञातापणे ऊपजे छे पण रागना
कर्तापणे ऊपजतो नथी.
छे, द्रव्य पोते पोतानी क्रमबद्धपर्यायरूपे परिणमे छे, ते कूटस्थ नथी तेम बीजो तेनो परिणमावनार नथी.
माने छे? निमित्तने अने रागने पृथक राखीने ज्ञायकतत्त्वने लक्षमां ले, निमित्तने उपजावनार के रागपणे
ऊपजनार हुं नथी, हुं तो ज्ञायकपणे ज ऊपजुं छुं एटले हुं ज्ञायक ज छुं––एम अनुभव कर, तो तने सात
तत्त्वोमांथी पहेलां जीवतत्त्वनी साची प्रतीत थई कहेवाय, अने तो ज तें देव–गुरु–शास्त्रने खरेखर मान्या
कहेवाय.