Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: ७० : आत्मधर्म : मागसर–पोष : २४८१ :
प्रकाशक वगर परप्रकाशकपणुं साचुं क्यांथी थशे? पुरुष, प्रमाण छे के नहि तेनो निर्णय पण ज्ञान वगर कोण
करशे? ज्ञाननो निर्णय करीने सम्यग्ज्ञान थया वगर पुरुषनी प्रमाणतानी परीक्षा कोण करशे? आप्तमीमांसा (–
देवागमस्तोत्र) मां स्वामी समन्तभद्रआचार्य कहे छे के हे नाथ! अमे तो परीक्षा वडे आपनी सर्वज्ञतानो
निर्णय करीने आपने मानीए छीए. प्रयोजनरूप मूळभूत तत्त्वोनो तो परीक्षा करीने पोताना ज्ञानमां निर्णय
करे, अने पछी बीजा अप्रयोजनरूप तत्त्वोमां न पहोंची शके तो तेने ‘पुरुष प्रमाणे वचन प्रमाण’ करीने मानी
ल्ये, ते बराबर छे. पण एकांत ‘पुरुष प्रमाणे वचन प्रमाण’ कहीने रोकाई जाय ने पोताना ज्ञानमां मूळभूत
तत्त्वोना निर्णयनो पण उद्यम न करे तो तेने सम्यग्ज्ञान थतुं नथी. पुरुषनी प्रमाणतानो (एटले के सर्वज्ञनो)
निर्णय करवा जाय तो तेमां पण ज्ञानस्वभावनो ज निर्णय करवानुं आवे छे. पुरुषनी प्रमाणता तो तेनामां
रही, पण ते प्रमाणता कई रीते छे ते तारा ज्ञानमां तो भास्युं नथी, पुरुषनी प्रमाणतानो निर्णय तारा ज्ञानमां
तो आव्यो नथी, तेथी ‘पुरुष प्रमाणे वचन प्रमाण’ ए वात तने लागु पडती नथी.
[१८] क्रमबद्धनी के केवळीनी वात कोण कही शके?
ए ज प्रमाणे, एकला परनी के रागनी ओथ लईने कोई अज्ञानी एम कहे के ‘विकार क्रमबद्धपर्यायमां
थवानो हतो तेथी थयो, अथवा केवळीभगवाने तेम जोयुं हतुं माटे थयो’ ––तो ते स्वछंदी छे; भाई रे! तारा
ज्ञानस्वभावनी प्रतीत वगर तुं क्रमबद्धपर्यायनी के केवळीनी वात क्यांथी लाव्यो? तुं एकला रागनी ओथ
लईने वात करे छे पण ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करतो नथी, तो ते खरेखर केवळीभगवानने के क्रमबद्धपर्यायने
मान्या ज नथी. केवळी भगवानने के क्रमबद्धपर्यायने खरेखर ओळखनार जीवनी द्रष्टि तो अंतरमां पोताना
ज्ञायकस्वभाव तरफ वळी गई होय छे; एने तो ज्ञाननी ज अधिकता होय छे, रागनी अधिकता तेने होती ज
नथी. ज्ञानस्वभाव तरफ वळ्‌या वगर धर्ममां एक पगलुं पण चाले तेम नथी.
[१९] ज्ञानना निर्णय विना बधुं य खोटुं.
ज्ञायकभावरूपी तलवारथी समकीतिए संसारने छेदी नांख्यो छे.
प्रश्न:– तो शुं अत्यार सुधीनुं अमारुं बधुं खोटुं?
उत्तर:– हा, भाई! बधुं य खोटुं. अंतरमां ‘हुं ज्ञान छुं’ एवुं लक्ष अने प्रतीत न करे त्यां सुधी शास्त्रनां
भणतर के त्याग वगेरे कांई पण साचुं नथी, तेनाथी संसारनो छेद थतो नथी. आत्मानो ज्ञानस्वभाव,
सर्वज्ञता, अने पदार्थोनी क्रमबद्धपर्याय ए बधानो निर्णय करीने ज्यां ज्ञायक तरफ वळ्‌यो, त्यां ज्ञायकभावरूपी
एवी तलवार हाथमां लीधी के एक क्षणमां संसारने मूळमांथी छेदी नांखे!
[२०] सम्यग्द्रष्टि मुक्त; मिथ्याद्रष्टिने ज संसार.
हवेनी गाथाओमां कहेशे के, ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिमां समकीतिने संसार ज नथी, जेनी द्रष्टि कर्म उपर छे
एवा मिथ्याद्रष्टिने ज संसार छे. समकीति तो ज्ञानानंद स्वभावनी द्रष्टिथी पोताना शुद्ध स्वभावमां निश्चळ
होवाथी खरेखर मुक्त ज छे, –– ‘
शुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव’ (जुओ कळश १९८)
ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिवाळा ज्ञानीनुं अकर्तापणुं सिद्ध करीने, हवेनी बे गाथा (३१२–३१३) मां
आचार्यदेव कहेशे के जेने ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि नथी एवा मिथ्याद्रष्टिने ज निमित्त–नैमित्तिकभावथी संसार छे.
कर्मना निमित्तनो जीव उपर प्रभाव पडे, अथवा निमित्त आवे तेवुं कार्य थाय, कर्मना उदय प्रमाणे
विकार थाय–एवी अज्ञानीनी मान्यता तो दूर रही, पण जीव पोते मिथ्यात्वादि करे त्यारे कर्मने निमित्त कहेवाय,
अने जीव निमित्त थईने मिथ्यात्वादि कर्मने बांधे–ए वात पण मिथ्याद्रष्टिने ज लागु पडे छे. कर्मनो निमित्त
कर्ता मिथ्याद्रष्टि छे, ज्ञानी तो अकर्ता ज छे; ज्ञानीने कर्म साथे निमित्त–नैमित्तिकपणुं नथी, तेने ज्ञायक साथे संधि
थई छे ने कर्म साथेनी संधि तूटी गई छे.
[२१] सम्यग्दर्शनना विषयरूप जीवतत्त्व केवुं?
ज्ञानी पोताना ज्ञायकस्वभावना अवलंबने क्रमबद्ध ज्ञाताभावपणे ज ऊपजे छे, पण रागना कर्तापणे
नथी ऊपजतो; ‘रागनो कर्ता जीव’ ते सम्यग्दर्शननो विषय नथी, पण ‘ज्ञायकभावपणे ऊपजतो जीव’ ते
सम्यग्दर्शननो विषय छे. आवा जीवतत्त्वनी प्रतीत करवी ते सम्यग्दर्शन छे.