करशे? ज्ञाननो निर्णय करीने सम्यग्ज्ञान थया वगर पुरुषनी प्रमाणतानी परीक्षा कोण करशे? आप्तमीमांसा (–
देवागमस्तोत्र) मां स्वामी समन्तभद्रआचार्य कहे छे के हे नाथ! अमे तो परीक्षा वडे आपनी सर्वज्ञतानो
निर्णय करीने आपने मानीए छीए. प्रयोजनरूप मूळभूत तत्त्वोनो तो परीक्षा करीने पोताना ज्ञानमां निर्णय
करे, अने पछी बीजा अप्रयोजनरूप तत्त्वोमां न पहोंची शके तो तेने ‘पुरुष प्रमाणे वचन प्रमाण’ करीने मानी
ल्ये, ते बराबर छे. पण एकांत ‘पुरुष प्रमाणे वचन प्रमाण’ कहीने रोकाई जाय ने पोताना ज्ञानमां मूळभूत
तत्त्वोना निर्णयनो पण उद्यम न करे तो तेने सम्यग्ज्ञान थतुं नथी. पुरुषनी प्रमाणतानो (एटले के सर्वज्ञनो)
रही, पण ते प्रमाणता कई रीते छे ते तारा ज्ञानमां तो भास्युं नथी, पुरुषनी प्रमाणतानो निर्णय तारा ज्ञानमां
तो आव्यो नथी, तेथी ‘पुरुष प्रमाणे वचन प्रमाण’ ए वात तने लागु पडती नथी.
ज्ञानस्वभावनी प्रतीत वगर तुं क्रमबद्धपर्यायनी के केवळीनी वात क्यांथी लाव्यो? तुं एकला रागनी ओथ
लईने वात करे छे पण ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करतो नथी, तो ते खरेखर केवळीभगवानने के क्रमबद्धपर्यायने
ज्ञायकस्वभाव तरफ वळी गई होय छे; एने तो ज्ञाननी ज अधिकता होय छे, रागनी अधिकता तेने होती ज
नथी. ज्ञानस्वभाव तरफ वळ्या वगर धर्ममां एक पगलुं पण चाले तेम नथी.
प्रश्न:– तो शुं अत्यार सुधीनुं अमारुं बधुं खोटुं?
उत्तर:– हा, भाई! बधुं य खोटुं. अंतरमां ‘हुं ज्ञान छुं’ एवुं लक्ष अने प्रतीत न करे त्यां सुधी शास्त्रनां
सर्वज्ञता, अने पदार्थोनी क्रमबद्धपर्याय ए बधानो निर्णय करीने ज्यां ज्ञायक तरफ वळ्यो, त्यां ज्ञायकभावरूपी
एवी तलवार हाथमां लीधी के एक क्षणमां संसारने मूळमांथी छेदी नांखे!
होवाथी खरेखर मुक्त ज छे, –– ‘
अने जीव निमित्त थईने मिथ्यात्वादि कर्मने बांधे–ए वात पण मिथ्याद्रष्टिने ज लागु पडे छे. कर्मनो निमित्त
कर्ता मिथ्याद्रष्टि छे, ज्ञानी तो अकर्ता ज छे; ज्ञानीने कर्म साथे निमित्त–नैमित्तिकपणुं नथी, तेने ज्ञायक साथे संधि
थई छे ने कर्म साथेनी संधि तूटी गई छे.
सम्यग्दर्शननो विषय छे. आवा जीवतत्त्वनी प्रतीत करवी ते सम्यग्दर्शन छे.