: मागसर–पोष : २४८१ : आत्मधर्म : ६९ :
आ रीते आचार्य भगवान पहेलेथी ज ज्ञायकस्वभावना अवलंबननी वात कहेता आव्या छे; अहीं पण
क्रमबद्धपर्यायमां द्रव्यनुं अनन्यपणुं बतावीने, बीजी ढबथी ज्ञायकस्वभावनी ज द्रष्टि करावी छे. ‘दवियं जं
उप्पज्जइ गुणेहिं तं तेहिं जाणसु अणण्णं’ ––आम कहीने, पर्याये पर्याये अभेदपणे तारो ज्ञायकभाव ज
परिणमी रह्यो छे–एम बताव्युं छे. (आ संबंधी विस्तार माटे जुओ अंक १३३, प्रवचन आठमुं, नंबर १८८)
[१२] वारंवार घूंटीने अंतरमां परिणमाववा जेवी मुख्य वात.
जुओ, आवो ‘ज्ञा... य.. क... भा... व’ ते जीवनुं माथुं छे, ––ते मुख्य छे तेथी तेने माथुं कह्युं. आ वात
मुख्य प्रयोजनभूत होवाथी वारंवार घूंटवा जेवी छे, अंतरमां निर्णय करीने परिणमाववा जेवी छे.
[१३].
सात तत्त्वोमांथी जीवतत्त्व केवुं छे तेनी आ वात छे. जीवतत्त्वनो ज्ञायकस्वभाव छे; तेनी सन्मुख थईने
ज्ञायकभावे ऊपज्यो ने ते परिणाममां अभेद थयो ते ज खरेखर जीव छे; रागमां अभेद थईने ऊपज्यो ते
खरेखर जीवतत्त्व नथी, ते तो आस्रवतत्त्व छे. ज्ञानीना परिणमनमां रागनी मुख्यता नथी, तेने तो ज्ञायकनी
एकनी ज मुख्यता छे, रागना ते ज्ञाता छे. ज्ञायक तरफ वळीने तेने ‘निश्चयज्ञेय’ बनाव्युं त्यां अस्थिरतानो
अल्पराग ‘व्यवहारज्ञेय’ थई जाय छे.
[१४] जीवननुं खरुं कर्तव्य.
जीवनमां आ मुख्य करवा जेवुं छे, आ समजणथी ज जीवननी सफळता छे... अरे! जीवनमां आवी
अपूर्व समजण करवी रही जाय छे––एम जेने चिंता पण न थाय––समजवानी दरकार पण न जागे, ते जीव
समजणनो प्रयत्न क्यांथी करे? साची समजणनी किंमत भासवी जोईए के जीवनमां सत्समागमे साची समजण
करवी ए ज एक करवा जेवुं खरुं काम छे. आ समजण वगर ‘जगतमां बहारनां कामो में कर्यां’ एम मानीने
मफतनो परनां अभिमान करे छे, ते तो सांढनी जेम उकरडा उथामे छे, ––तेमां आत्मानुं जराय हित नथी.
[१प] प्रभु! तारा ज्ञायकभावने लक्षमां ले.
भगवान! तारो आत्मा अनादिअनंत चैतन्य ढीम पड्यो छे, एकवार तेने लक्षमां तो ले! अनादिथी
बहार जोयुं छे, पण अंदरमां हुं कोण छुं––ए कदी जोयुं नथी... सिद्धपरमात्मा जेवो पोतानो आत्मा छे तेने कदी
लक्षमां लीधो नथी. तारो आत्मा ज्ञायक छे, प्रभु! ज्ञायक उपजीने तो ज्ञायकभावने रचे के रागने रचे? सोनुं
ऊपजीने सोनानी अवस्थाने ज रचे, पण सोनुं कांई लोढानी अवस्थाने न रचे. तेम आत्मानो ज्ञायकस्वभाव
छे ते तो ज्ञायकभावनो ज रचनार छे––ज्ञायकना अवलंबने ज्ञायकभावनी ज रचना (–उत्पत्ति) थाय छे, पण
अज्ञानी पोताना ज्ञायकस्वभावने भूलीने रागने रचे छे––रागादिनो कर्ता थाय छे. अहीं ज्ञायकस्वभाव
बतावीने आचार्यदेव ते रागनुं कर्तापणुं छोडावे छे.
[१६] निर्मळ पर्यायने ज्ञायकस्वभावनुं ज अवलंबन.
ज्ञानी पोताना ज्ञायकस्वभावमां एकाग्रताथी ज्ञायकभावपणे ज क्रमबद्ध ऊपजे छे; पोताना
ज्ञायकपरिणाम साथे अभेद थईने ऊपजतो थको ते जीव ज छे, अजीव नथी, ते कोई बीजाना अवलंबन वडे
नथी ऊपजतो, निमित्तना कारणे, रागना कारणे के पूर्व पर्यायना कारणे नथी ऊपजतो, तेमज भविष्यनी
पर्यायमां केवळज्ञान थवानुं छे तेने कारणे अत्यारे सम्यग्दर्शनादि पर्याय थाय छे––एम पण नथी; वर्तमानमां
जीव पोते ज्ञायकस्वभाव तरफ वळीने ज्ञायकभावपणे (सम्यग्दर्शनादि पणे) ऊपज्यो छे, स्व तरफ वळेली
वर्तमान पर्यायनो क्रम ज एवो निर्मळ छे. आम अंतरमां वळीने ज्ञायकस्वभावने पकड्यो त्यां निर्मळ पर्याय
उपजी; वर्तमान स्वभावनुं अवलंबन ते ज तेनुं कारण छे, ए सिवाय पूर्व–पछीनुं कोई कारण नथी तेमज
निमित्त के व्यवहारनुं अवलंबन नथी.
[१७] ‘पुरुष प्रमाणे वचन प्रमाण’ ए क्यारे लागु पडे?
प्रश्न:– आवुं झीणुं समजवामां बहु महेनत पडे, तेना करतां ‘पुरुष प्रमाणे वचन प्रमाण’ एम धारीने
आ वात मानी लईए तो?
उत्तर:– भाई, ए तो एकलुं परप्रकाशक थयुं; स्व–