Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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(१)
(२) त्यार पछी–
: ६८ : आत्मधर्म : मागसर–पोष : २४८१ :
नथी. साधकने जे राग थाय छे ते तो स्व–परप्रकाशकज्ञानना ज्ञेयपणे छे, पण ज्ञानना कार्यपणे नथी एटले
ज्ञानी तेनो ज्ञाता ज छे, पण ते रागनो कर्ता के फेरवनार नथी. रागना समये पण ज्ञानी तो ते रागना
ज्ञानपणे ज ऊपज्यो छे. जो रागने आघोपाछो फेरववानी बुद्धि करे तो रागनुं कर्तापणुं थई जाय छे एटले
ज्ञातापणानो क्रम न रहेतां मिथ्यात्व थई जाय छे. सामे जे वखते रागनो काळ छे ते ज वखते ज्ञानीने पोतामां
तो ज्ञातापणानो ज काळ छे, ज्ञायक तरफ वळीने ते तो ज्ञानपणे ज ऊपजे छे, रागपणे ऊपजतो नथी.
[] अंर्तमुख ज्ञाननी साथे ज आनंद–श्रद्धा वगेरेनुं परिणमन; अने ते ज धर्म.
जीवने आवुं स्व–परप्रकाशकज्ञान खील्युं त्यां ते पोताना आनंद वगेरे गुणोनी निर्मळताने पण जाणे छे.
ज्ञान साथे आनंद, श्रद्धा वगेरे बीजा अनंतगुणो पण ते ज समये पोतपोतानी क्रमबद्ध निर्मळ पर्यायपणे
ऊपजे छे ने ज्ञान तेने जाणे छे. ज्ञानमां एवी ज स्व–परप्रकाशकपणानी ताकात खीली छे, ने ते वखते बीजा
गुणोमां पण एवुं ज निर्मळ परिणमन होय छे, ते ज्ञानना कारणे नहि पण ते गुणोमां ज एवो क्रम छे. अहीं
ज्ञानमां स्व–सन्मुख थतां निर्मळ स्वपरप्रकाशक शक्ति ऊघडी ने ते वखते श्रद्धा–आनंद वगेरे बीजा गुणोमां
निर्मळ परिणमन न थाय–एम कदी बनतुं नथी. शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टिमां द्रव्यना ज्ञान–आनंद वगेरे गुणोमां एक
साथे निर्मळ परिणमननो प्रवाह शरू थई जाय छे. सम्यक्–श्रद्धानी साथे सम्यक् चारित्र, आनंद वगेरेनो अंश
पण भेगो ज छे. जुओ, आनुं नाम धर्म छे. अंतरमां आवुं परिणमन थाय ते धर्म छे, आ सिवाय बहारना
कोई स्थानमां के शरीरादिनी क्रियामां धर्म नथी, पापना के पुण्यना भावमां पण धर्म नथी, एकला शास्त्रोना
शब्दोना जाणपणामां पण धर्म नथी. अंर्तमुख थईने ज्ञायकस्वभावनुं अवलंबन लेतां, श्रद्धा–ज्ञान वगेरे
गुणोनुं निर्मळ परिणमन शरू थई जाय तेनुं नाम धर्म छे. आ रीते ज्ञायकमूर्ति आत्माना अवलंबनमां धर्म छे.
ज्ञायकनुं अवलंबन लईने ज्ञानभावे ऊपज्यो ते ज ज्ञानीनो धर्म छे.
[१०] जेवुं वस्तुस्वरूप, तेवुं ज ज्ञान, अने तेवी ज वाणी.
जीवस्त्राजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिया सुत्ते।
तं जीवमजीवं वा तेहिमणण्णं वियाणाहि।। ३०९।।
एटले के, सूत्रमां जीवना के अजीवना जे परिणाम दर्शाव्या छे तेनी साथे ते जीव के अजीवने अनन्य–
एकमेक जाण. दरेक द्रव्यने पोताना परिणाम साथे अभेदपणुं छे, पण परथी भिन्नपणुं छे...
–आम सर्वज्ञदेवे अने संतोए जाण्युं छे.
–सर्वज्ञना आगममां–सूत्रमां पण एम कह्युं छे,
–अने वस्तुस्वरूप पण एवुं ज छे;
ए रीते ज्ञान, शब्द अने अर्थ ए त्रणेनी संधि छे. दरेक समये क्रमबद्ध ऊपजता पोताना परिणामो साथे
द्रव्य तन्मय छे––एवुं वस्तुनुं स्वरूप छे, एवुं ज सर्वज्ञ अने संतोनुं ज्ञान जाणे छे, ने एवुं ज सूत्र बतावे छे.
आथी विपरीत बतावे एटले के एक द्रव्यना परिणामनुं कर्ता बीजुं द्रव्य छे––एम बतावे, तो ते देव–गुरु के
शास्त्र साचां नथी ने वस्तुनुं स्वरूप पण एवुं नथी.
[११] ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि–ए ज मूळतात्पर्य.
अहीं क्रमबद्धपर्यायमां द्रव्यनुं अनन्यपणुं बतावीने द्रव्यद्रष्टि ज कराववानुं तात्पर्य छे.
णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव।।
––एम कहीने त्यां छठ्ठी गाथामां पर्यायना भेदोनुं अवलंबन छोडावीने एकरूप ज्ञायकभावनी द्रष्टि
करावी छे.
ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो।।
–भूतार्थस्वभावना आश्रये ज सम्यग्दर्शन थाय छे, एम कहीने त्यां अगीयारमी गाथामां पण एकरूप
ज्ञायकस्वभावनो ज अनुभव कराव्यो छे.
(३) वळी, संवर–अधिकारमां ‘उवओगे उवओगो...’ ––उपयोगमां उपयोग छे’ ––एम कहीने,
संवरनी जे निर्मळ दशा प्रगटी तेनी साथे आत्मानुं अभेदपणुं बताव्युं, एटले के ज्ञायकस्वरूपमां अभेदताथी ज
संवरदशा प्रगटे छे––एम बताव्युं.