Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: मागसर–पोष : २४८१ : आत्मधर्म : ६७ :
अज्ञानीने समजावे छे के–तुं ज्ञायक छो; ज्ञायकभाव स्वपरनो प्रकाशक छे पण रागादिनो उत्पादक नथी; भाई!
ज्ञायकभाव कर्ता थईने ज्ञानने उपजावे के रागने उपजावे? ज्ञायकभाव तो ज्ञानने ज उपजावे. माटे, ज्ञायकभाव
रागनो कर्ता नथी–एम तुं समज, अने ज्ञायक सन्मुख था.
[] कई द्रष्टिथी क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय थाय?
अहीं क्रमबद्धपर्याय बतावीने ज्ञायकस्वभाव उपर जोर देवुं छे, क्रमबद्धना वर्णनमां ज्ञायकनी ज मुख्यता
छे, रागादिनी मुख्यता नथी. जीव पोतानी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजे छे, तेमां ज्ञान, श्रद्धा वगेरे बधा गुणोनुं
परिणमन भेगुं ज छे. ते परिणामपणे कोण ऊपजे छे? –के जीव ऊपजे छे. ते जीव केवो? –के ज्ञायकस्वभावी.
आवो निर्णय करनार पोताना ज्ञायकस्वभावना अवलंबने ज्ञानभावे ज (एटले के श्रद्धा, ज्ञान, आनंद वगेरे
गुणोना निर्मळ अंशपणे ज) ऊपजे छे, पण रागपणे ऊपजतो नथी. श्रद्धा, ज्ञान, आनंद वगेरेनी
क्रमबद्धपर्यायोपणे ‘राग’ नथी ऊपजतो पण ज्ञायकस्वभावी ‘जीव’ ऊपजे छे. माटे ज्ञायकस्वभाव उपर जेनी
द्रष्टि छे तेने ज क्रमबद्धपर्यायनो साचो निर्णय छे, ने तेनी क्रमबद्धपर्यायो निर्मळ थती जाय छे.
[] ‘स्वसमय’ एटले रागादिनो अकर्ता
समयसारनी पहेली गाथा ‘वंदित्तु सव्व सिद्धे...’ मां सर्वे सिद्ध भगवंतोने नमस्कार करीने, बीजी
गाथामां जीवनुं स्वरूप वर्णवतां आचार्यदेवे कह्युं के–
जीवो चरितदंसणणाणट्ठिउ तं हि ससमयं जाण।
पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं।।
–एटले के स्वसन्मुख थईने पोताना सम्यग्यदर्शनज्ञान–चारित्ररूप निर्मळ पर्यायमां जे आत्मा स्थित छे
तेने स्वसमय जाण. ते तो जीवनुं स्वरूप छे; पण निमित्तमां ने रागमां एकताबुद्धि करीने तेमां ज जे स्थित छे
ते परसमय छे; ते खरेखर जीवनुं स्वरूप नथी. त्यां जेने ‘स्वसमय’ कह्यो तेने ज अहीं ‘अकर्ता’ कहीने वर्णव्यो
छे. ज्ञायकस्वभावनी सन्मुख थईने पोताना सम्यक् श्रद्धा–ज्ञानने वीतरागभावनी पर्यायपणे जे ऊपज्यो ते
‘स्वसमय’ छे, ने ते रागादिनो ‘अकर्ता’ छे.
[] ‘निमित्तनो प्रभाव’ माननार बाह्यद्रष्टिमां अटक्या छे.
अत्यारे तो, आ मूळभूत अंतरनी वातने भूलीने घणा लोको निमित्तना ने व्यवहारना झघडामां अटक्या
छे. निमित्तोनो आत्मा उपर प्रभाव पडे–एम मानीने जेओ निमित्ताधीनद्रष्टिमां ज अटकी गया छे तेमने तो
ज्ञायकस्वभाव तरफ वळवानो अवकाश नथी. निमित्तनो प्रभाव पडे एटले कुंभारनो घडा उपर प्रभाव पडे,
कर्मनो आत्मा उपर प्रभाव पडे, एम जे माने छे तेने तो हजी मिथ्यात्वरूपी दारूनो प्रभाव लईने मिथ्याद्रष्टि ज
रहेवुं छे. ज्ञायकस्वभाव तरफ वळतां मारी पर्यायमां ज्ञायकभावनो प्रभाव पडे–एम न मानतां, निमित्तनो
प्रभाव पडे एम माने छे तो, हे भाई! निमित्त तरफनुं वलण छोडीने तुं स्वभाव तरफ क्यारे वळीश? निमित्त
तरफ ज न जोतां ज्ञायकस्वभाव तरफ वळे तो कर्मनुं निमित्तपणुं रहेतुं नथी. अज्ञानीने तेना गुणनी ऊंधाईमां
कर्मनुं निमित्त भले हो, पण ते तो परज्ञेयमां जाय छे; अहीं तो ज्ञानीनी वात छे के, ज्ञानी पोते ज्ञायक तरफ वळ्‌यो
छे एटले ते ज्ञातापणे ज ऊपज्यो छे, रागपणे–आस्रव के बंधपणे ते ऊपजतो नथी, तेथी तेने कर्मनुं निमित्तपणुं
पण नथी. आ रीते, क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीत करीने ज्ञायक तरफ झूकेलो जीव, क्रमबद्धपर्यायमां रागपणे नथी
ऊपजतो पण ज्ञानपणे ज ऊपजे छे, अने ए ज क्रमबद्धनी यथार्थ प्रतीतनुं फळ छे.
[] ज्ञाताना क्रममां ज्ञाननी वृद्धि ने रागनी हानि.
प्रश्न:– जो पर्याय क्रमबद्ध छे, हीन–अधिक थती नथी, तो ओछा ज्ञानने वधारी तो न शकाय? ने रागने
घटाडी तो न शकाय?
उत्तर:– अरे भाई! हजी तुं आ वात नथी समज्यो, तारुं वलण ज्ञायक तरफ नथी गयुं. भाई, ज्ञानने
वधारवानो ने रागने घटाडवानो उपाय तो क्यांय बहारमां छे? –के अंतरना ज्ञायकस्वभावना अवलंबनमां
छे? ‘हुं ज्ञायक छुं ने मारा ज्ञायकनी पर्याय तो क्रमबद्ध स्वपर प्रकाशक ज थाय छे’ एवो निर्णय करीने ज्ञायकनुं
अवलंबन लीधुं छे, त्यां पर्याये पर्याये ज्ञाननी विशुद्धता वधती ज जाय छे ने राग घटतो ज जाय छे; हुं ज्ञान
वधारुं ने राग घटाडुं–एम पर्याय सामे ज लक्ष राखे, पण अंतरमां ज्ञायकस्वभावनुं अवलंबन न ल्ये तो तेने
ज्ञान वधारवाना ने राग घटाडवाना साचा उपायनी खबर