Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: ६६ : आत्मधर्म : मागसर–पोष : २४८१ :
[१]
प्रवचन पहेलुं
[वीर सं. २४८० आसो सुद सातम]
[] अलौकिक अधिकारनुं फरीने वांचन.
आ अलौकिक अचिंत्य अधिकार छे, तेथी फरीने वंचाय छे. मोक्ष–अधिकारनी आ चूलिका छे.
समयसारमां नवे तत्त्वोनुं वर्णन कर्या पछी आचार्यदेवे आ ‘सर्वविशुद्धज्ञान’ नुं वर्णन कर्युं छे. ‘सर्वविशुद्धज्ञान’
एटले आत्मानो ज्ञायकस्वभाव, ते स्वभावमां वळीने अभेद थयेलुं ज्ञान रागादिनुं पण अकर्ता ज छे.
अहीं सिद्ध करवुं छे जीवनुं अकर्तापणुं! पण तेमां क्रमबद्धपर्यायनी वात करीने आचार्यदेवे अलौकिक रीते
अकर्तापणुं सिद्ध कर्युं छे.
[] ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि कराववानुं प्रयोजन छे.
‘प्रथम तो जीव क्रमबद्ध एवा पोताना परिणामोथी ऊपजतो थको जीव ज छे.’ एक साथे ज्ञान, आनंद,
श्रद्धा वगेरे अनंत गुणोनी क्रमबद्धपर्यायपणे जीवद्रव्य ऊपजे छे. ‘जीव’ कोने कहेवो तेनुं वर्णन पूर्वे (गाथा २
वगेरेमां) करता आव्या छे; त्यां कह्युं हतुं के सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप पोतानी निर्मळ पर्यायमां स्थित थईने
जे ऊपजे छे ते ज खरेखर जीव छे, रागादि भावोमां जे स्थित छे ते खरेखर जीव नथी. जीव ज्ञायकस्वभाव छे,
ते ज्ञायकस्वभाव खरेखर रागपणे ऊपजतो नथी, –एटले ज्ञायक सन्मुख थयेलो जीव रागनो कर्ता थतो नथी,
ज्ञायकनी द्रष्टिमां तेने रागनी अधिकता थती नथी, माटे ते रागादिनो अकर्ता ज छे. आवुं ज्ञायकस्वभावनुं
अकर्तापणुं ओळखावीने, अहीं ते ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि कराववानुं प्रयोजन छे.
[] ज्ञायकस्वभावी जीव रागनो पण अकर्ता छे.
आत्मा ज्ञायक छे; अनादिथी तेना ज्ञायकभावनो स्वपरप्रकाशक प्रवाह छे, –ज्ञान तो स्व–परने जाणवानुं
ज काम करे छे; पण आवा ज्ञायकभावनी प्रतीत न करतां अज्ञानी जीव रागना कर्तापणे परिणमे छे एटले के
मिथ्यात्वपणे ऊपजे छे. अहीं आचार्यदेव ते अज्ञानीने तेनो ज्ञायकस्वभाव समजावे छे; आत्मा तो स्व–
परप्रकाशक ज्ञायकस्वभावी छे, तेनो ज्ञायकभाव उपजीने रागने उत्पन्न करे के मिथ्यात्वादि कर्मोने बंधावामां
निमित्त थाय, ––एम नथी; तेमज ते कर्मोने निमित्त बनावीने तेना आश्रये पोते विकारपणे ऊपजे–एवो पण
तेनो स्वभाव नथी; पण ज्ञायकना अवलंबने क्रमबद्ध ज्ञायकभावपणे ज ऊपजे–एवो आत्मानो स्वभाव छे.
पोते निमित्तपणे थईने बीजाने नहि उपजावतो, तेमज बीजाना निमित्ते पोते नहि ऊपजतो एवो
ज्ञायकस्वभाव ते जीव छे. स्वसन्मुख रहीने पोते स्व–परप्रकाशक ज्ञानपणे क्रमबद्ध ऊपजतो थको रागने पण
ज्ञेय बनावे छे. अज्ञानी रागने ज्ञेय न बनावतां, ते रागनी साथे ज ज्ञाननी एकता मानीने मिथ्या द्रष्टि थाय
छे, ने ज्ञानी तो ज्ञानस्वभावमां ज ज्ञाननी एकता राखीने, रागने पृथकपणे ज्ञेय बनावे छे, एटले ज्ञानी तो
ज्ञायक ज छे, रागनो पण ते कर्ता नथी.
[] ज्ञानीनी वात, अज्ञानीने समजावे छे.
–आ वात कोने समजावे छे?
आ वात छे ज्ञानीनी, पण समजावे छे अज्ञानीने. अंतरमां जेने ज्ञानस्वभाव अने रागनी भिन्नतानुं
भान नथी एवा