Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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‘आत्मा ज्ञायक छे.’
क्रमबद्धपर्यायनुं विस्तारथी स्पष्टीकरण
अने अनेक प्रकारनी
विपरीत कल्पनाओनुं निराकरण
भाग बीजो
[समयसार गा. ३०८ थी ३१ तथा तेनी टीका उपर पू. गुरुदेवनां खास प्रवचनो]
आत्माना अतीन्द्रियसुखने स्पर्शीने बहार आवती,
भेदज्ञाननो झणझणाट करती, अने मुमुक्षुओनां हैयांने डोलावी
मूकती, पू. गुरुदेवनी पावनकारी वाणीमां,
‘ज्ञायक सन्मुख
लई जनारा क्रमबद्धपर्यायना प्रवचनो’ नी जे अद्भुत
अमृतधारा एक सप्ताह सुधी वरसी, ते गया अंकमां आपी
गया छीए. त्यार पछी मुमुक्षुओना विशेष सद्भाग्ये बीजी
वार आसो सुद सातमथी अगीयारस सुधी एवी ज
अमृतधारा पांच दिवस सुधी फरीने वरसी. –नित्य नवीनताने
धारण करती ए अमृतधारा अहीं आपवामां आवी छे.
‘हुं ज्ञाता छुं–एम ज्ञानसन्मुख थईने न परिणमतां, रागादिनो
कर्ता थईने परिणमे छे ते जीव क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता नथी.
क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता तो ज्ञायकसन्मुख रहीने रागादिने पण जाणे ज
छे. तेने स्वभावसन्मुख परिणमनमां शुद्धपर्याय ज थती जाय छे.
आत्मानो ज्ञान स्वभाव छे तेने लक्षमां लईने तुं विचार के आ
तरफ हुं ज्ञायक छुं–मारो सर्वज्ञस्वभाव छे, ––तो सामे ज्ञेयवस्तुनी पर्याय
क्रमबद्ध ज होय के अक्रमबद्ध? पोताना ज्ञान स्वभावने सामे राखीने
विचारे तो तो आ क्रमबद्धपर्यायनी वात सीधीसट बेसी जाय तेवी छे;
पण ज्ञायकस्वभावने भूलीने विचारे तो एक पण वस्तुनो निर्णय थाय
तेम नथी.’