एकमेक छे एवुं तारुं अनादिनुं मिथ्या एकांत टळी जशे, ने ज्ञायक साथे ज्ञाननी एकतारूप सम्यक् एकांत
थशे; ते ज्ञाननी साथे सम्यक्श्रद्धा, आनंद, पुरुषार्थ वगेरे अनंत गुणोनुं परिणमन पण भेगुं ज छे, तेथी
अनेकान्त छे.
कांई एवो नियम नथी के सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थतां ते क्षणे ज पूरुं चारित्र पण प्रगटी ज जाय. अरे, क्षायिक
सम्यग्दर्शन थया पछी लाखो–करोडो वर्षो सुधी श्रावकपणुं के मुनिपणुं (अर्थात् पांचमुं के छठ्ठुं–सातमुं
गुणस्थान) न आवे, अने कोईने सम्यग्दर्शन थतां अंतमुहूर्तमां ज मुनिदशा–क्षपकश्रेणी ने केवळज्ञान थई जाय.
छतां, समकीति चोथा गुणस्थाने पण रागना ज्ञाता ज छे, अहीं पोताना स्व–परप्रकाशक ज्ञाननुं तेवुं ज सामर्थ्य
छे, –एम ज्ञानसामर्थ्यनी प्रतीतना जोरे ज्ञानी ते ते वखतना रागने पण ज्ञेय बनावी द्ये छे. ज्ञायकस्वभावनी
अधिकता तेनी द्रष्टिमांथी एक क्षण पण खसती नथी, ज्ञायकनी द्रष्टिमां ते ज्ञाताभावपणे ज ऊपजे छे, रागमां
तन्मयपणे ऊपजतो नथी. आ रीते, क्रमबद्धपर्यायमां ज्ञानीने रागनी प्रधानता नथी, ज्ञातापणानी ज प्रधानता
छे. राग वखते, ‘हुं आ रागपणे ऊपजुं छुं’ एवी जेनी द्रष्टि छे ने ज्ञायकनी द्रष्टि नथी ते खरेखर
क्रमबद्धपर्यायनुं वास्तविकस्वरूप समज्यो ज नथी.
सामे जोईने मानी, के परनी सामे जोईने? ज्ञायक द्रव्यनी सन्मुख थईने क्रमबद्धनी प्रतीत करी तेने तो मिथ्यात्व
होय ज नहि. अने जो एकला परनी सामे जोईने तुं क्रमबद्धनी वात करतो हो तो तारो क्रमबद्धनो निर्णय ज
खोटो छे. तारी क्रमबद्धपर्यायपणे कोण ऊपजे छे? –जीव; जीव केवो? ––के ज्ञायकस्वभावी; तो आवा जीवतत्त्वने
तें लक्षमां लीधुं छे? जो आवा ज्ञायकस्वभावी जीवतत्त्वने जाणीने क्रमबद्धपर्याय माने तो तो ज्ञातापणानी ज
क्रमबद्धपर्याय थाय, ने मिथ्यात्व थाय ज नहि; मिथ्यात्वपणे ऊपजे एवो ज्ञायकनो स्वभाव नथी.
उत्तर:– ते राग ज्ञातानुं कार्य नथी पण ज्ञातानुं ज्ञेय छे. ज्ञायकस्वभाव ते परमार्थज्ञेय छे ने राग ते
तेनो ज कर्ता–भोक्ता छे. वळी, ‘व्यवहार छे माटे परमार्थ छे’ ––एम पण नथी, राग छे माटे तेनुं ज्ञान थाय
छे––एम नथी. ज्ञायकना अवलंबने ज एवा स्व–परप्रकाशक ज्ञाननुं परिणमन थयुं छे, राग कांई ज्ञायकना
अवलंबनमांथी थयो नथी; माटे ज्ञानी तेनो अकर्ता छे.
छे, ते मोटो स्वछंद छे. जेने ज्ञायकस्वभाव ने क्रमबद्धपर्याय समजवा जेटली पात्रता थई होय ते जीवने कुदेव–