Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: ७२ : आत्मधर्म : मागसर–पोष : २४८१ :
[२प] अरे मूरख! एकांतनी वात एक कोर मूकीने आ समज!
आ वात सांभळतां, ‘अरे! एकांत थई जाय छे... रे... एकांत थई जाय छे! ’ एम घणां अज्ञानीओ
पोकारे छे. ––पण अरे मूरख! तारी ए वात एक कोर मूकीने आ समज ने! आ समजवाथी, राग ने ज्ञान
एकमेक छे एवुं तारुं अनादिनुं मिथ्या एकांत टळी जशे, ने ज्ञायक साथे ज्ञाननी एकतारूप सम्यक् एकांत
थशे; ते ज्ञाननी साथे सम्यक्श्रद्धा, आनंद, पुरुषार्थ वगेरे अनंत गुणोनुं परिणमन पण भेगुं ज छे, तेथी
अनेकान्त छे.
[२६] समकीतिने राग छे के नथी?
अंर्तस्वभावना अवलंबने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान थया तेनी साथे चारित्रनो अंश पण उघड्यो
छे, ––स्वरूपाचरणचारित्र प्रगटी गयुं छे. कोईने एम शंका थाय के ‘सम्यग्दर्शन थतां तेनी साथे पूरुं चारित्र केम
न थयुं?’ ––तो तेने ज्ञान–चारित्र वगेरेना भिन्नभिन्न क्रमबद्धपरिणमननी खबर नथी. क्रमबद्ध परिणमनमां
कांई एवो नियम नथी के सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थतां ते क्षणे ज पूरुं चारित्र पण प्रगटी ज जाय. अरे, क्षायिक
सम्यग्दर्शन थया पछी लाखो–करोडो वर्षो सुधी श्रावकपणुं के मुनिपणुं (अर्थात् पांचमुं के छठ्ठुं–सातमुं
गुणस्थान) न आवे, अने कोईने सम्यग्दर्शन थतां अंतमुहूर्तमां ज मुनिदशा–क्षपकश्रेणी ने केवळज्ञान थई जाय.
छतां, समकीति चोथा गुणस्थाने पण रागना ज्ञाता ज छे, अहीं पोताना स्व–परप्रकाशक ज्ञाननुं तेवुं ज सामर्थ्य
छे, –एम ज्ञानसामर्थ्यनी प्रतीतना जोरे ज्ञानी ते ते वखतना रागने पण ज्ञेय बनावी द्ये छे. ज्ञायकस्वभावनी
अधिकता तेनी द्रष्टिमांथी एक क्षण पण खसती नथी, ज्ञायकनी द्रष्टिमां ते ज्ञाताभावपणे ज ऊपजे छे, रागमां
तन्मयपणे ऊपजतो नथी. आ रीते, क्रमबद्धपर्यायमां ज्ञानीने रागनी प्रधानता नथी, ज्ञातापणानी ज प्रधानता
छे. राग वखते, ‘हुं आ रागपणे ऊपजुं छुं’ एवी जेनी द्रष्टि छे ने ज्ञायकनी द्रष्टि नथी ते खरेखर
क्रमबद्धपर्यायनुं वास्तविकस्वरूप समज्यो ज नथी.
[२७] क्रमबद्धपर्यायनो साचो निर्णय क्यारे थाय?
‘क्रमबद्धपर्यायमां अमारे मिथ्यात्व आववानुं हशे तो! ’ ––एम शंका करनारने क्रमबद्धपर्यायनो खरो
निर्णय थयो ज नथी. सांभळ रे सांभळ, अरे मूढ! तें क्रमबद्धपर्याय कोनी सामे जोईने मानी! तारा ज्ञायक द्रव्य
सामे जोईने मानी, के परनी सामे जोईने? ज्ञायक द्रव्यनी सन्मुख थईने क्रमबद्धनी प्रतीत करी तेने तो मिथ्यात्व
होय ज नहि. अने जो एकला परनी सामे जोईने तुं क्रमबद्धनी वात करतो हो तो तारो क्रमबद्धनो निर्णय ज
खोटो छे. तारी क्रमबद्धपर्यायपणे कोण ऊपजे छे? –जीव; जीव केवो? ––के ज्ञायकस्वभावी; तो आवा जीवतत्त्वने
तें लक्षमां लीधुं छे? जो आवा ज्ञायकस्वभावी जीवतत्त्वने जाणीने क्रमबद्धपर्याय माने तो तो ज्ञातापणानी ज
क्रमबद्धपर्याय थाय, ने मिथ्यात्व थाय ज नहि; मिथ्यात्वपणे ऊपजे एवो ज्ञायकनो स्वभाव नथी.
[२८] ज्ञानी रागना अकर्ता छे; ‘जेनी मुख्यता तेनो ज कर्ता. ’
प्रश्न:– ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि थया पछी पण ज्ञानीने राग तो थाय छे?
उत्तर:– ते राग ज्ञातानुं कार्य नथी पण ज्ञातानुं ज्ञेय छे. ज्ञायकस्वभाव ते परमार्थज्ञेय छे ने राग ते
व्यवहार ज्ञेय छे. ज्ञाताना परिणमनमां तो ज्ञाननी ज मुख्यता छे, रागनी मुख्यता नथी. अने जेनी मुख्यता छे
तेनो ज कर्ता–भोक्ता छे. वळी, ‘व्यवहार छे माटे परमार्थ छे’ ––एम पण नथी, राग छे माटे तेनुं ज्ञान थाय
छे––एम नथी. ज्ञायकना अवलंबने ज एवा स्व–परप्रकाशक ज्ञाननुं परिणमन थयुं छे, राग कांई ज्ञायकना
अवलंबनमांथी थयो नथी; माटे ज्ञानी तेनो अकर्ता छे.
[२९] क्रमबद्धपर्याय समजवा जेटली पात्रता क्यारे?
प्रश्न:– आप कहो छो एवा ज्ञायकस्वरूप जीवने तेम ज क्रमबद्धपर्यायने अमे मानीए, अने साथे साथे
कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रने पण मानीए, तो शु वांधो?
उत्तर:– अरे स्वछंदी! तारा कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र पासे आ वातनी गंध पण नथी, तो तेनी पासेथी
तारामां क्यांथी आव्युं? कोईक पासेथी धारणा करी––चोरी करी––ने आ वातना नामे तारे तारा मानने पोषवुं
छे, ते मोटो स्वछंद छे. जेने ज्ञायकस्वभाव ने क्रमबद्धपर्याय समजवा जेटली पात्रता थई होय ते जीवने कुदेव–