Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 12 of 45

background image
: मागसर–पोष : २४८१ : आत्मधर्म : ७३ :
कुगुरु–कुशास्त्रनुं सेवन होय ज नहि. को’ कना शब्दो लईने गोखी ल्ये–एम कांई चाले तेवुं नथी. बधा प्रकारनी
पात्रता होय त्यारे आ वात समजाय तेवी छे.
[३०] भगवान! तुं कोण? ने तारा परिणाम कोण?
ज्ञानी पोताना ज्ञायकभावनी क्रमबद्धपर्याये ऊपजतो थको जीव ज छे, अजीव नथी. ज्ञायकभाव सिवाय
राग ते पण खरेखर जीव नथी, ज्ञानी ते रागपणे ऊपजतो नथी. कर्म ते जीव नथी, शरीर ते जीव नथी, तेथी
ज्ञायकपणे ऊपजतो जीव ते कर्म–शरीर वगेरेनो निमित्तकर्ता पण नथी; ज्ञायक तो ज्ञायक ज छे, ज्ञायकभावपणे
ज ते ऊपजे छे. –आवुं जीवनुं स्वरूप छे.
• भगवान! तुं कोण? ने
तारा परिणाम कोण? तेने ओळख.
• तुं जीव! ज्ञायक! अने
ज्ञायकना आश्रये दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी जे
निर्मळ पर्याय उपजी ते तारा परिणाम!
––आवा निर्मळ क्रमबद्ध परिणामपणे ऊपजवानो तारो स्वभाव छे; पण विकारनो कर्ता थईने परने
उपजावे के पर निमित्ते पोते ऊपजे–एवो तारो स्वभाव नथी. एकवार तारी पर्यायने अंतरमां वाळ, तो
ज्ञायकना आश्रये तारी क्रमबद्धपर्यायमां निर्मळ परिणमन थाय.
[३१] ज्ञानीनी दशा.
ज्ञायकस्वभावसन्मुख थईने जे क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता थयो छे एवा ज्ञानीने प्रमाद पण नथी होतो ने
आकुळता पण नथी होती; केमके (१) ज्ञानस्वभावनी सन्मुखता कोई पण समये टळती नथी एटले प्रमाद थतो
नथी, द्रष्टिना जोरे स्वभावना अवलंबननो प्रयत्न चालु ज छे; अने (२) क्रम फेरववानी बुद्धि नथी एटले
उतावळ पण नथी, ––पर्यायबुद्धिनी आकुळता नथी, पण धीरज छे ज्ञायक स्वभावनुं ज अवलंबन करीने
परिणमे छे, तेमां प्रमाद पण केवो ने आकुळता पण केवी?
[३२] ‘अकिंचित्कर होय तो, –निमित्तनी उपयोगिता शुं? ’ –अज्ञानीनो प्रश्न.
जेने ज्ञायकनी द्रष्टि नथी ने क्रम फेरववानी बुद्धि छे ते पण मिथ्याद्रष्टि छे; तो पछी निमित्त आवीने
पर्याय फेरवी द्ये––ए मान्यता तो क्यां रही?
प्रश्न:– जो निमित्त कांई करतुं न होय तो तेनी उपयोगिता शुं छे?
उत्तर:– भाई, आत्मामां परनी उपयोगिता छे ज क्यां? उपयोगिता तो उपयोगस्वरूप आत्मानी ज छे,
निमित्तनी उपयोगिता निमित्तमां छे, पण आत्मामां तेनी उपयोगिता नथी. ‘आत्मामां निमित्तनी उपयोगिता
नथी’ ––एम मानवाथी कांई जगतमांथी निमित्तना अस्तित्वनो लोप थई जतो नथी, ते ज्ञाननुं ज्ञेय छे.
जगतमां ज्ञेयपणे तो त्रणकाळ त्रणलोक छे, तेथी कांई आत्मामां तेनी उपयोगिता थई गई? अज्ञानीओ एम
कहे छे के “निमित्तनी उपयोगिता मानो एटले के निमित्त कंईक करी द्ये एम मानो, तो तमे निमित्तने मान्युं
कहेवाय.” पण भाई! निमित्तने निमित्तमां ज राख; आत्मामां निमित्तनी उपयोगिता नथी–एम मानवामां ज
निमित्तनुं निमित्तपणुं रहे छे. पण निमित्त उपयोगी थईने आत्मामां कांई करी द्ये–एम मानतां निमित्त
निमित्तपणे नथी रहेतुं, पण उपादान–निमित्तनी एकता थई जाय छे, एटले के मिथ्यात्व थई जाय छे. माटे
निमित्तनुं अस्तित्व जेम छे तेम जाणवुं जोईए. पण, जेने शुद्ध उपादानरूप ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि नथी ने
एकला निमित्तने जाणवा जाय छे तेने निमित्तनुं यथार्थ ज्ञान थतुं नथी, केमके स्व–परप्रकाशक सम्यग्ज्ञान ज तेने
खील्युं नथी.