Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: मागसर–पोष : २४८१ : आत्मधर्म : ७५ :
संबंधनो सहज मेळ भले हो, पण ज्ञानीनी द्रष्टि तो ज्ञायकस्वभाव उपर ज छे, निमित्त सामे ज्ञानीनी द्रष्टि
नथी. ज्ञानीने जे स्व–परप्रकाशकज्ञान खील्युं तेमां निमित्तनुं पण ज्ञान आवी जाय छे.
[३७] द्रव्यने लक्षमां राखीने क्रमबद्धपर्यायनी वात.
द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावरूप वस्तु पोते परिणमीने समये समये नवी नवी क्रमबद्ध अवस्थारूपे ऊपजे छे;
वस्तुमां समये समये आंदोलन थई रह्युं छे, पहेलां समयना द्रव्यक्षेत्र–काळ–भाव बीजा समये सर्वथा एवा ने
एवा ज नथी रहेता, पण बीजा समये पलटीने बीजी अवस्थारूपे ऊपजे छे. एटले पर्याय पलटतां द्रव्य पण
परिणमीने ते ते समयनी पर्याय साथे तन्मयपणे वर्ते छे. ––आ रीते द्रव्यने लक्षमां राखीने क्रमबद्धपर्यायनी
वात छे. पहेली वखतनां आठ प्रवचनोमां आ वात विस्तारथी सरस आवी गई छे.
(जुओ, अंक १३३, प्रवचन आठमुं, नं. १८८)
[३८] परमार्थे बधा जीवो ज्ञायकस्वभावी छे;––पण एम कोण जाणे?
बधा जीवो अनादिअनंत स्व–परप्रकाशक ज्ञायक स्वभावे ज छे. जीवना एकेन्द्रियथी पंचेन्द्रिय वगेरे
भेदो छे ते तो पर्याय अपेक्षाए तथा शरीरादि निमित्तोनी अपेक्षाए छे; पण स्वभावथी तो बधा जीवो ज्ञायक
ज छे. ––आम कोण जाणे? के जेणे पोतामां ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि करी होय ते बीजा जीवोने पण तेवा
स्वभाववाळा जाणे. व्यवहारथी जीवना अनेक भेदो छे, पण परमार्थे बधा जीवोनो ज्ञायकस्वभाव छे, एम जे
जाणे तेने व्यवहारना भेदोनुं ज्ञान साचुं थाय. अज्ञानी तो व्यवहारने जाणतां तेने ज जीवनुं स्वरूप मानी ले
छे; एटले तेने पर्यायबुद्धिथी अनंतानुबंधी राग–द्वेष थाय छे; धर्मीने एवा राग–द्वेष थता ज नथी.
[३९] ‘क्रमबद्धपर्याय’ अने तेना चार द्रष्टांतो.
अहीं आचार्यभगवान कहे छे के जीवनी क्रमबद्धपर्यायपणे जीव स्वयं ऊपजे छे, ने अजीवनी
क्रमबद्धपर्यायपणे अजीव स्वयं ऊपजे छे, कोई कोईना कर्ता नथी के फेरवनार नथी. पर्यायनुं लक्षण क्रमवर्तीपणुं
छे, क्रमवर्ती कहो के क्रमबद्ध कहो; के नियमबद्ध कहो, दरेक द्रव्य पोतानी व्यवस्थित क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजे छे,
आत्मा पोताना ज्ञायकप्रवाहना क्रममां रहीने तेनो ज्ञाता ज छे.
(१) पर्याय क्रमवर्ती छे, ते क्रमवर्तीपणानो अर्थ ‘पादविक्षेप’ करतां पंचाध्यायीनी १६७मी गाथामां कहे छे–
अस्त्यत्र यः प्रसिद्धः क्रम इति धातुश्च पादविक्षेपे।
क्रमति क्रम इति रूपस्तस्य स्वार्थानतिक्रमादेषः।।”
–– ‘क्रम’ धातु छे ते ‘पादविक्षेप’ एवा अर्थमां प्रसिद्ध छे, अने पोताना अर्थ प्रमाणे ‘क्रमति इति
क्रमः’ एवुं तेनुं रूप छे.
‘पादविक्षेप’ एटले, माणस चाले त्यारे तेनो जमणो ने डाबो पग एक पछी एक क्रमसर पडे छे, जमणां
पछी डाबो, ने डाबा पछी जमणो, एवो जे चालवानो पादक्रम छे ते आडोअवळो थतो नथी, तेम जीव–अजीव
द्रव्योनुं परिणमन पण क्रमबद्ध थाय छे, तेनी पर्यायोनो क्रम आडोअवळो थतो नथी. आ रीते ‘क्रमबद्धपर्याय’
माटे एक दृष्टांत तो ‘पादविक्षेप’ नुं एटले के चालवाना कुदरती क्रमनुं कह्युं.
(२) बीजुं द्रष्टांत नक्षत्रोनुं छे, ते पण कुदरतनुं छे. प्रमेयकमलमार्तंड (३–१८) मां ‘क्रमभाव’ ने माटे
नक्षत्रोनुं द्रष्टांत आप्युं छे. जेम कृतिका, रोहिणी, मृगशिर्ष... वगेरे बधा नक्षत्रो क्रमबद्ध ज छे; वर्तमानमां
‘रोहिणी’ नक्षत्र उदयरूप होय तो, तेना पहेलांं ‘कृतिका’ नक्षत्र ज हतुं ने हवे ‘मृगशिर्ष’ नक्षत्र ज आवशे,
एम निर्णय थई शके छे; जो नक्षत्रो निश्चित–क्रमबद्ध ज न होय तो, पहेलांं कयुं नक्षत्र हतुं ने हवे कयुं नक्षत्र
आवशे तेनो निर्णय थई ज न शके. तेम दरेक द्रव्यमां तेनी त्रणे काळनी पर्यायो निश्चित क्रमबद्ध ज छे; जो
द्रव्यनी क्रमबद्धपर्यायो निश्चित न होय तो ज्ञान त्रण काळनुं कई रीते जाणे? आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे, ने
ज्ञानमां सर्वज्ञतानी ताकात छे––एवो निर्णय करे तो तेमां क्रमबद्धपर्यायनो स्वीकार आवी ज जाय छे. जे
क्रमबद्धपर्यायने नथी स्वीकारतो तेने ज्ञानस्वभावनो के सर्वज्ञनो यथार्थ निर्णय थयो नथी.