नथी. ज्ञानीने जे स्व–परप्रकाशकज्ञान खील्युं तेमां निमित्तनुं पण ज्ञान आवी जाय छे.
एवा ज नथी रहेता, पण बीजा समये पलटीने बीजी अवस्थारूपे ऊपजे छे. एटले पर्याय पलटतां द्रव्य पण
परिणमीने ते ते समयनी पर्याय साथे तन्मयपणे वर्ते छे. ––आ रीते द्रव्यने लक्षमां राखीने क्रमबद्धपर्यायनी
वात छे. पहेली वखतनां आठ प्रवचनोमां आ वात विस्तारथी सरस आवी गई छे.
ज छे. ––आम कोण जाणे? के जेणे पोतामां ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि करी होय ते बीजा जीवोने पण तेवा
स्वभाववाळा जाणे. व्यवहारथी जीवना अनेक भेदो छे, पण परमार्थे बधा जीवोनो ज्ञायकस्वभाव छे, एम जे
जाणे तेने व्यवहारना भेदोनुं ज्ञान साचुं थाय. अज्ञानी तो व्यवहारने जाणतां तेने ज जीवनुं स्वरूप मानी ले
छे; एटले तेने पर्यायबुद्धिथी अनंतानुबंधी राग–द्वेष थाय छे; धर्मीने एवा राग–द्वेष थता ज नथी.
छे, क्रमवर्ती कहो के क्रमबद्ध कहो; के नियमबद्ध कहो, दरेक द्रव्य पोतानी व्यवस्थित क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजे छे,
आत्मा पोताना ज्ञायकप्रवाहना क्रममां रहीने तेनो ज्ञाता ज छे.
द्रव्योनुं परिणमन पण क्रमबद्ध थाय छे, तेनी पर्यायोनो क्रम आडोअवळो थतो नथी. आ रीते ‘क्रमबद्धपर्याय’
माटे एक दृष्टांत तो ‘पादविक्षेप’ नुं एटले के चालवाना कुदरती क्रमनुं कह्युं.
‘रोहिणी’ नक्षत्र उदयरूप होय तो, तेना पहेलांं ‘कृतिका’ नक्षत्र ज हतुं ने हवे ‘मृगशिर्ष’ नक्षत्र ज आवशे,
एम निर्णय थई शके छे; जो नक्षत्रो निश्चित–क्रमबद्ध ज न होय तो, पहेलांं कयुं नक्षत्र हतुं ने हवे कयुं नक्षत्र
आवशे तेनो निर्णय थई ज न शके. तेम दरेक द्रव्यमां तेनी त्रणे काळनी पर्यायो निश्चित क्रमबद्ध ज छे; जो
द्रव्यनी क्रमबद्धपर्यायो निश्चित न होय तो ज्ञान त्रण काळनुं कई रीते जाणे? आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे, ने
ज्ञानमां सर्वज्ञतानी ताकात छे––एवो निर्णय करे तो तेमां क्रमबद्धपर्यायनो स्वीकार आवी ज जाय छे. जे
क्रमबद्धपर्यायने नथी स्वीकारतो तेने ज्ञानस्वभावनो के सर्वज्ञनो यथार्थ निर्णय थयो नथी.