Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: ७६ : आत्मधर्म : मागसर–पोष : २४८१ :
(३) क्रमबद्धपर्यायने माटे त्रीजुं द्रष्टांत, नक्षत्रोनी जेम ‘सात वार’ नुं छे. जेम सात वारमां रवि पछी
सोम, ने सोम पछी मंगळ... बुध... गुरु... शुक्र... शनि––एम क्रमसर ज आवे छे, रवि पछी सीधो बुध, ने बुध
पछी शनि–एम कदी थतुं नथी, जुदा जुदा देशमां के जुदी जुदी भाषामां सात वारनां नाम भले जुदा जुदा
बोलातां होय, पण सात वारनो जे क्रम छे ते तो बधे एक सरखो ज छे, बधा देशोमां रवि पछी सोमवार ज
आवे, ने सोम पछी मंगळवार ज आवे; रविवार पछी वच्चे सोमवार आव्या वगर सीधो मंगळवार आवी
जाय एम कदी कोई देशमां बनतुं नथी. तेम द्रव्यनी जे क्रमबद्धपर्याय छे ते कदी कोई द्रव्यमां आडीअवळी थती
नथी. सात वारमां, जे वार पछी जे वारनो वारो होय ते ज वार आवे छे, तेम द्रव्यमां जे पर्याय पछी जे
पर्यायनो वारो
[स्वकाळ] होय ते ज पर्याय थाय छे. आ ज्ञायक जीव पोताना ज्ञायकपणाने भूलीने तेमां
फेरफार करवा मांगे तो ते मिथ्याद्रष्टि छे, केमके ते परमां कर्तापणुं मानीने तेने फेरववा मांगे छे. हुं ज्ञाता छुं––
एम ज्ञानसन्मुख थईने न परिणमतां, रागादिनो कर्ता थईने परिणमे छे ते जीव क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता नथी.
क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता तो ज्ञायकसन्मुख रहीने रागादिने पण जाणे ज छे. तेने स्वभाव सन्मुख परिणमनमां
शुद्ध पर्याय ज थती जाय छे.
(४) ‘क्रमबद्धपर्याय’ नुं चोथुं द्रष्टांत छे––माळाना मोतीनुं. जेम १०८ मोतीओनी माळामां दरेक
मोतीनो क्रम नियमित छे, कोई मोतीनो क्रम आघोपाछो थतो नथी; तेम द्रव्यनी अनादि–अनंत पर्यायमाळा–
पर्यायोनी हार छे, तेमां दरेक पर्याय क्रमबद्ध छे, कोई पर्याय आडी–अवळी थती नथी.
[–जुओ, प्रवचनसार
गा. ९९ टीका] जुओ, आ वस्तु स्वरूप!
[४०] हे जीव! तुं ज्ञायकने लक्षमां लईने विचार.
भाई, आ समजवा माटे कांई मोटा मोटा न्यायशास्त्रो गोखवा पडे एम नथी. आत्मानो ज्ञान स्वभाव
छे तेने लक्षमां लईने तुं विचार के आ तरफ हुं ज्ञायक छुं––मारो सर्वज्ञस्वभाव छे, ––तो सामे ज्ञेयवस्तुनी
पर्याय क्रमबद्ध ज होय के अक्रमबद्ध? पोताना ज्ञानस्वभावने सामे राखीने विचारे तो तो आ क्रमबद्धपर्यायनी
वात सीधीसट बेसी जाय तेवी छे; पण ज्ञायकस्वभावने भूलीने विचारे तो एक पण वस्तुनो निर्णय थाय तेम
नथी. निर्णय करनार तो ज्ञायक छे, ते ज्ञायकना ज निर्णय वगर परनो के क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय करशे कोण?
‘हुं ज्ञायक छुं’ एम स्वभावमां एकता करीने साधकजीव ज्ञायकभावे ज ऊपजे छे; जेनी मुख्यता छे तेनो ज
कर्ता–भोक्ता छे, ज्ञानीने रागनी मुख्यता नथी तेथी तेनो कर्ता–भोक्ता नथी. रागने गौण करीने, व्यवहार
गणीने, अभूतार्थ कह्यो छे एटले ज्ञानी रागपणे ऊपजतो ज नथी. आ रीते अभेदनी वात छे, ––ज्ञायकमां
अभेद थयो ते ज्ञान–आनंद–श्रद्धा वगेरे पणे ज ऊपजे छे, रागमां अभेद नथी तेथी ते रागपणे ऊपजतो ज
नथी. श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र–आनंद वगेरेना निर्मळ क्रमबद्धपरिणामपणे ज ज्ञानी ऊपजे छे.
[४१] क्रमबद्धपणुं कई रीते छे?
अहीं ‘क्रमबद्धपरिणाम’ कहेवाय छे एटले शुं? पहेलांं एक गुण परिणमे, पछी बीजो गुण परिणमे,
पछी त्रीजो गुण परिणमे–एवो क्रमबद्धपरिणामनो अर्थ नथी; अनंतगुणो छे ते कांई एक पछी एक नथी
परिणमता, गुणो तो बधा एक साथे ज परिणमे छे, एटले अनंतगुणोना अनंत परिणाम एक साथे छे; पण
अहीं तो गुणोना परिणामो एक पछी एक
[ऊर्ध्वक्रमे] ऊपजे छे तेनी वात छे. गुणो सहभावरूप–एक साथे–
छे, पण पर्यायो क्रमभावरूप–एक पछी एक–छे. एक पछी एक होवा उपरांत, ते दरेक पर्याय स्वकाळमां
नियमित–व्यवस्थित छे. ––आ वात लोकोने बेसती नथी, ने फेरफार करवानुं–परनुं कर्तापणुं माने छे. आचार्य
प्रभु समजावे छे के भाई! ज्ञानस्वभाव तो बधाने जाणे, के कोईने फेरवे? तारा ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करीने तुं
स्व तरफ फरी जा, ने परने फेरववानी मिथ्याबुद्धि छोडी दे.
[४२] ज्ञान अने ज्ञेयनी परिणमनधारा; केवळीभगवानना द्रष्टांते साधकदशानी समजण.
केवळज्ञानी भगवानने पूरेपूरो स्व–परप्रकाशकभाव परिणमी रह्यो छे ने सामे आखुं ज्ञेय जणाई गयुं
छे. ज्ञेयो बधा क्रमबद्ध परिणमी रह्या छे, ने अहीं पूरुं ज्ञान तथा