पछी शनि–एम कदी थतुं नथी, जुदा जुदा देशमां के जुदी जुदी भाषामां सात वारनां नाम भले जुदा जुदा
बोलातां होय, पण सात वारनो जे क्रम छे ते तो बधे एक सरखो ज छे, बधा देशोमां रवि पछी सोमवार ज
आवे, ने सोम पछी मंगळवार ज आवे; रविवार पछी वच्चे सोमवार आव्या वगर सीधो मंगळवार आवी
जाय एम कदी कोई देशमां बनतुं नथी. तेम द्रव्यनी जे क्रमबद्धपर्याय छे ते कदी कोई द्रव्यमां आडीअवळी थती
नथी. सात वारमां, जे वार पछी जे वारनो वारो होय ते ज वार आवे छे, तेम द्रव्यमां जे पर्याय पछी जे
पर्यायनो वारो
एम ज्ञानसन्मुख थईने न परिणमतां, रागादिनो कर्ता थईने परिणमे छे ते जीव क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता नथी.
क्रमबद्धपर्यायनो ज्ञाता तो ज्ञायकसन्मुख रहीने रागादिने पण जाणे ज छे. तेने स्वभाव सन्मुख परिणमनमां
शुद्ध पर्याय ज थती जाय छे.
पर्यायोनी हार छे, तेमां दरेक पर्याय क्रमबद्ध छे, कोई पर्याय आडी–अवळी थती नथी.
पर्याय क्रमबद्ध ज होय के अक्रमबद्ध? पोताना ज्ञानस्वभावने सामे राखीने विचारे तो तो आ क्रमबद्धपर्यायनी
वात सीधीसट बेसी जाय तेवी छे; पण ज्ञायकस्वभावने भूलीने विचारे तो एक पण वस्तुनो निर्णय थाय तेम
नथी. निर्णय करनार तो ज्ञायक छे, ते ज्ञायकना ज निर्णय वगर परनो के क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय करशे कोण?
‘हुं ज्ञायक छुं’ एम स्वभावमां एकता करीने साधकजीव ज्ञायकभावे ज ऊपजे छे; जेनी मुख्यता छे तेनो ज
कर्ता–भोक्ता छे, ज्ञानीने रागनी मुख्यता नथी तेथी तेनो कर्ता–भोक्ता नथी. रागने गौण करीने, व्यवहार
गणीने, अभूतार्थ कह्यो छे एटले ज्ञानी रागपणे ऊपजतो ज नथी. आ रीते अभेदनी वात छे, ––ज्ञायकमां
अभेद थयो ते ज्ञान–आनंद–श्रद्धा वगेरे पणे ज ऊपजे छे, रागमां अभेद नथी तेथी ते रागपणे ऊपजतो ज
नथी. श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र–आनंद वगेरेना निर्मळ क्रमबद्धपरिणामपणे ज ज्ञानी ऊपजे छे.
परिणमता, गुणो तो बधा एक साथे ज परिणमे छे, एटले अनंतगुणोना अनंत परिणाम एक साथे छे; पण
अहीं तो गुणोना परिणामो एक पछी एक
नियमित–व्यवस्थित छे. ––आ वात लोकोने बेसती नथी, ने फेरफार करवानुं–परनुं कर्तापणुं माने छे. आचार्य
प्रभु समजावे छे के भाई! ज्ञानस्वभाव तो बधाने जाणे, के कोईने फेरवे? तारा ज्ञानस्वभावनी प्रतीत करीने तुं
स्व तरफ फरी जा, ने परने फेरववानी मिथ्याबुद्धि छोडी दे.