: ७८ : आत्मधर्म : मागसर–पोष : २४८१ :
पणानुं ज काम’ थई रह्युं छे. पण मूढ जीव ऊंधी द्रष्टिथी परनुं कर्तापणुं माने छे.
[४प] मूढ जीव जेम आवे तेम बके छे.
शरीरनी वात आवे त्यां अज्ञानी कहे छे के ‘जीव विना कांई शरीरनी क्रिया थाय? जीव होय तो शरीरनी
क्रिया थाय. ’ एनो अर्थ ए थयो के जीव होय तो अजीवनां परिणाम थाय, एटले अजीवमां तो जाणे कांई
शक्ति ज न होय! ––एम ते मूढ माने छे.
वळी ज्यां कर्मनी वात आवे त्यां ते अज्ञानी एम कहे छे के ‘भाई! कर्मनुं जोर छे, कर्म जीवने विकार
करावे छे ने कर्म ज जीवने रखडावे छे! ’ –––अरे भाई! अजीवमां कांई बळ न हतुं ने वळी क्यांथी आवी
गयुं? कर्म जीवने पराणे परिणमावे, ––एटले जीवमां स्वाधीन परिणमवानी तो जाणे कांई शक्ति ज न होय––
एम ते मूढ माने छे. जीव–अजीवनी स्वतंत्रताना भान वगर अज्ञानीओ घडीकमां आम ने घडीकमां तेम, जेम
आवे तेम बके छे.
[४६] अज्ञानीनी घणी ऊंधी वात; ज्ञानीनी अपूर्व द्रष्टि.
वळी, थर्मोमीटरनुं द्रष्टांत आपीने कोई एम कहे छे के, जेटलो ताव होय तेटलो थर्मोमीटरमां आवे तेम
जेटलो उदय होय ते प्रमाणे ज विकार थाय. ––तो ए वात जूठी छे. भाई, तारी द्रष्टि ऊंधी छे ने तारुं द्रष्टांत
पण ऊंधुंं छे. कोई वार १०प डीग्री ताव होय छतां थर्मोमीटरमां तेटलो नथी पण आवतो. तेम उदयप्रमाणे ज
जीवने विकार थाय––एम कदी बनतुं ज नथी.
‘उदय प्रमाणे ज विकार थाय’ ए वात तो घणी ज स्थूळ ऊंधी छे. परंतु, जीव पोते विकार करीने उदयने
निमित्त बनावे–ए वात पण अहीं नथी. जे अज्ञानी जीव विकारनो कर्ता थाय छे तेने ज कर्मनी साथे संबंध छे,
पण ज्ञानी तो ज्ञायकभावे ज परिणमे छे, ज्ञायकभावमां कर्म साथे संबंध ज नथी. –आवी ज्ञायकस्वभावनी
द्रष्टि करीने स्वसन्मुख ज्ञातापणे परिणमवुं ते ज अपूर्व धर्म छे, ने ते जीव खरेखर अकर्ता छे. अकर्तापणारूप
पोतानो जे ज्ञायकभाव छे तेनो ते कर्ता छे, पण रागनो के कर्मनो कर्ता नथी.
[४७] ‘मरख...’
जुओ शास्त्रमां एम आवे छे के– ‘कत्थवि बलिओ जीवो, कत्थवि कम्माइ हुंति बलियाइ’ अर्थात्
क्यारेक जीव बळवान थाय छे ने क्यारेक कर्म बळवान थई जाय छे’ ––पण अज्ञानीओ तेनो आशय समजता
नथी, ने ऊंधुंं माने छे. जीवे पुरुषार्थ न कर्यो त्यारे निमित्तथी कर्मने बळवान कह्युं. परंतु कर्मनो उदय ज जीवने
बळजोरथी राग–द्वेषरूपे परिणमावे छे––एम जे माने छे तेने तो पं. बनारसीदासजी नाटक–समयसारमां
‘मूरख’ कहे छे.
‘कोऊ मूरख यों कहै, राग दोष परिनाम।
पुग्गलकी जोरावरी, वरतै आतमराम।। ६२।।’
[४८] ऊंधी मान्यतानुं जोर...! ! (–तेना चार दाखला)
(१) ऊंधी द्रष्टि जीवने सवळुं समजवा देती नथी जुओ, ‘उदय प्रमाणे विकार थाय छे’ एम माननारने
पण उदय प्रमाणे तो विकार थतो ज नथी; तेने शास्त्र भणतर वगेरेमां (भले ऊंधी द्रष्टिपूर्वक पण) मंद
रागनो प्रयत्न तो वर्ते छे, ज्ञानमां पण ए प्रमाणे ज आवे छे, कर्मना उदय प्रमाणे विकार थाय छे––एम कांई
तेना ज्ञानमां जणातुं नथी, छतां तेनी ऊंधी द्रष्टिनुं जोर तेने एम मनावे छे के उदय प्रमाणे विकार थाय. एनी
ऊंधी मान्यतामां मिथ्यात्वनुं एटलुं जोर पड्युं छे के अनंतो उदय आवे तो मारे तेवुं थवुं पडशे––एवो तेनो
अभिप्राय वर्ते छे, एटले एमां निगोददशानी ज आराधनानुं जोर पड्युं छे.
(२) ए प्रमाणे ऊंधी द्रष्टिनो बीजो दाखलो: स्थानकवासीना तेरापंथी लोको असंयमी प्रत्येना दया–
दानना भावने पण पाप मनावे छे. कोई जीवने बचाववानो भाव के दानादिनो भाव थाय त्यारे तेने पोताने
कोमळ परिणामरूप शुभ भाव छे, ते वखते तेना ज्ञानमां पण एवो ज ख्याल आवे छे के आ कंईक
शुभपरिणाम छे, ते वखते कांई ज्ञानमां ‘आ पाप परिणाम छे’ एवो ख्याल नथी आवतो; पण ऊंधी श्रद्धानुं
जोर एवुं छे के पोताने शुभ होवा छतां तेने पाप मनावे छे. दया–दानने पाप माननार तेरापंथीने पोताने पण
दया–दान वखते कांई पापना भाव नथी, छतां ऊंधी द्रष्टिना जोरने लीधे ते तेने पाप माने छे.
(३) ए ज रीते त्रीजो दाखलो: जिनप्रतिमाना दर्शन–पूजन–भक्ति वगेरेमां शुभभाव छे, छतां स्थानकवासी