अस्तित्व होय ते कांई कार्यनी पराधीनता नथी बतावतुं, पण ज्ञाननुं स्वपरप्रकाशक सामर्थ्य जाहेर करे छे.
माटीनां वासण जंगलमां हाथे बनावी लेतां ने तेमां रांधतां. ‘रामे वासण बनाव्या’ एम बोलाय, पण खरेखर
तो माटीना परमाणुओ स्वयं ते वासणनी अवस्थारूपे ऊपज्या छे. रामचंद्रजी तो आत्मज्ञानी हता, अने ते
वखते पण तेओ पोताना ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिथी ज्ञाताभावपणे ज ऊपजता हता; माटीनी पर्यायने हुं
उपजावुं छुं एम तेओ मानता न हता; स्व–परप्रकाशक ज्ञानपणे क्रमबद्ध ऊपजता थका ते वखतना विकल्पने
अने वासण थवानी क्रियाने जाणता हता. जाणनारपणे ज ऊपजता हता, पण रागना के जडनी क्रियाना
कर्तापणे ऊपजता न हता. जुओ आ धर्मीनुं कार्य! आवी धर्मीनी दशा छे, अनाथी विपरीत माने तो ते
अज्ञानी छे, तेने धर्मना स्वरूपनी खबर नथी.
सीता वनमां हता, हाथे बनावेला वासणमां आहार रांध्यो हतो ने कोई मुनिराज पधारे तो आहारदान दईए–
एवी भावना करता हता; त्यां ज कुदरते ते मुनिवरो पधार्या, तेमने विधिपूर्वक पडगाहन करीने नवधा
भक्तिपूर्वक आहारदान कर्युं. ए रीते मुनिओना अभिग्रहनो कुदरती मेळ थई गयो. आवो मेळ कुदरती थई
जाय छे. पण ज्ञानी जाणे छे के हुं तो ज्ञायक छुं; आ आहार देवा–लेवानी क्रिया थई ते मारुं कार्य नथी, मुनिवरो
प्रत्ये भक्तिनो शुभभाव थयो ते पण खरेखर ज्ञातानुं कार्य नथी. रामचंद्रजी ज्ञानी हता, तेओ आम जाणता
हता. आहारदाननी बाह्यक्रियाना के ते तरफना विकल्पना, परमार्थे ज्ञानी कर्ता नथी; ते वखते अंतरमां
ज्ञायकस्वभावना अवलंबने क्षणे क्षणे ज्ञान–श्रद्धा–आनंद वगेरेनी पर्यायनुं पोते पोताने दान आपे छे, आ
दानमां पोते ज देनार छे ने पोते ज लेनार छे, निर्मळपर्यायपणे ऊपज्यो तेनो कर्ता पण पोते, ने संप्रदान पण
पोते. ज्ञान–आनंदनी हारमाळा सिवाय रागादिनो के परनी पर्यायनो आत्मा ज्ञाता छे पण कर्ता नथी; पोतानी
निर्मळज्ञान–आनंददशानो ज ज्ञानी कर्ता छे.
आंगणे आजे कल्पवृक्ष फळ्यां, अमारे जंगलमां मंगळ थया! ” ––छतां ते वखते ज्ञानी ते भाषाना के रागना
कर्तापणे परिणमता नथी पण ज्ञायकपणानी ज क्रमबद्धपर्यायना कर्तापणे परिणमे छे. अज्ञानीओने आ वात
बेसवी कठण पडे छे.
वनवासनी अवस्था थई एम नथी, तेमज अवस्थानो क्रम पलटी गयो एम पण नथी. रामचंद्रजी जाणता हता
के हुं तो ज्ञान छुं, आ वखते आवुं ज क्षेत्र मारा ज्ञानना ज्ञेयपणे होय, ––एवी ज स्व–परप्रकाशकशक्तिपणे
मारी ज्ञानपर्याय उपजी छे. राजभवनमां होउं के वनमां होउं, पण हुं तो स्व–परप्रकाशकज्ञायकपणे ज ऊपजुं छुं.
राजमहेल पण ज्ञेय छे ने आ वन पण मारा ज्ञाननुं ज्ञेय छे, आ वखते आ वनने जाणे एवी ज मारा ज्ञाननी
स्व–परप्रकाशकशक्ति खीली छे. आ प्रमाणे ज्ञानीने