Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: मागसर–पोष : २४८१ : आत्मधर्म : ८१ :
ज्ञायकद्रष्टि छूटती नथी, ज्ञायकद्रष्टिमां ते निर्मळ ज्ञानपर्याये ज ऊपजे छे.
[पप] ज्ञानी ज्ञाता रहे छे, अज्ञानी रागनो कर्ता थाय छे, ने परने फेरववा मांगे छे.
हुं ज्ञायक छुं–एवी द्रष्टि करीने ज्ञातापणे न रहेतां अज्ञानी रागादिनो कर्ता थईने परना क्रमने फेरववा
जाय छे. एने हजी रागने करवो छे ने परने फेरववुं छे, पण ज्ञातापणे नथी रहेवुं, तेने ज्ञातापणुं नथी गोठतुं
एटले ज्ञान उपर क्रोध छे; तेमज परना क्रमबद्धपरिणमन उपर (एटले के वस्तुना स्वभाव उपर) द्वेष छे तेथी
तेना क्रमने फेरववा मांगे छे, –आ मिथ्याद्रष्टिना अनंत राग–द्वेष छे. अमुक वखते अमुक प्रकारनो राग पलटीने
तेने बदले आवो ज राग करुं––एम जे हठ करीने रागने फेरववा मांगे छे तेने पण राग साथे एकत्वबुद्धिथी
मिथ्यात्व थाय छे. साधक, भूमिकाअनुसार राग होय तेने जाणे छे, ते रागने ज्ञाननुं ज्ञेय बनावी दे छे, पण
तेने ज्ञाननुं कार्य नथी बनावता, तेमज राग थतां ज्ञानमां शंका पण नथी पडती. हठपूर्वक रागने फेरववा जाय
तो तेने ते वखतना (––रागने पण जाणनारा) स्व–परप्रकाशक ज्ञाननी प्रतीत नथी एटले ज्ञान उपर ज द्वेष
छे. ज्ञानी तो ज्ञायकद्रष्टिना जोरमां ज्ञातापणे ज ऊपजे छे, रागपणे ऊपजता नथी; रागना य ज्ञातापणे ऊपजे
छे पण रागना कर्तापणे नथी ऊपजता. सम्यग्द्रष्टिनुं आवुं कार्य छे. अज्ञानी तो ज्ञायकस्वभावनी प्रतीत न
राखतां, पर्यायमूढ थईने पर्याय ने फेरववा मांगे छे, अथवा परज्ञेयोने लीधे ज्ञान माने छे, एटले ते ज्ञेयोने
जाणतां तेमां ज राग–द्वेष करीने अटकी जाय छे, पण आम ज्ञायकस्वभाव तरफ वळतो नथी.
[प६] जैनना लेबासमां बौद्ध.
बौद्धमति एम कहे छे के ‘ज्ञेयोने लीधे ज्ञान थाय छे; सामे घडो होय तो अहीं घडानुं ज ज्ञान थाय छे;
घडा वखते घडानुं ज ज्ञान थाय छे पण ‘आ हाथी छे’ एम नथी जणातुं, माटे ज्ञेयने लीधे ज ज्ञान थाय छे.’ –
–पण तेमनी ए वात मिथ्या छे. ज्ञेयोने लीधे ज्ञान नथी थतुं पण सामान्यज्ञान पोते विशेषज्ञानपणे परिणमीने
जाणे छे एटले ज्ञाननी पोतानी ज तेवी योग्यताथी घडा वगेरेनुं ज्ञान थाय छे; ते ज्ञान वखते घडो वगेरे ज्ञेयो
तो मात्र निमित्त छे. ––एम युक्तिपूर्वक सिद्ध करीने, अकलंक आचार्य वगेरे महान संतोए, ‘ज्ञेयोने लीधे ज्ञान
थाय’ ए वात ऊडाडी दीधी छे. तेने बदले आजे जैन नाम धरावनारा केटलाक विद्वानो पण एम माने छे के
‘निमित्तने लीधे ज्ञान थाय छे, निमित्तने लीधे कार्य थाय छे’ ––तो ए पण बौद्धमति जेवा ज मिथ्याद्रष्टि ठर्या;
बौद्धना ने एना अभिप्रायमां कांई फेर न रह्यो.
वळी, जेम ज्ञेयने लीधे ज्ञान नथी, तेम ज्ञानने लीधे ज्ञेयनी अवस्था थाय–एम पण नथी. जेम ज्ञेयने
लीधे ज्ञान थवानुं बौद्ध कहे छे, तेम जैनमां पण जो कोई एम माने के “ज्ञानने लीधे ज्ञेयनी अवस्था थाय छे, –
–जीव छे माटे घडो थाय छे, जीव छे माटे शरीर चाले छे, जीव छे माटे भाषा बोलाय छे” ––तो ए मान्यता पण
मिथ्या छे. ज्ञान अने ज्ञेय बंनेनी अवस्था क्रमबद्ध स्वतंत्रपणे पोतपोताथी ज थाय छे.
वळी, राग ते पण ज्ञातानुं व्यवहारे ज्ञेय छे. जेम ज्ञेयने लीधे ज्ञान के ज्ञानने लीधे ज्ञेय नथी, तेम
रागने लीधे ज्ञान, के ज्ञानने लीधे राग––एम पण नथी. राग होय त्यां ज्ञानमां पण राग ज जणाय, त्यां
अज्ञानीने एवो भ्रम थई जाय छे के आ राग छे माटे तेने लईने रागनुं ज्ञान थाय छे, एटले रागथी जुदुं––
रागना अवलंबन वगरनुं–ज्ञान तेने भासतुं नथी. हुं ज्ञायक छुं ने मारा ज्ञायकना परिणमनमांथी आ ज्ञाननो
प्रवाह आवे छे एवी प्रतीतमां ज्ञानी रागनो पण ज्ञाता ज रहे छे.
[प७] साचुं समजनार जीवनो विवेक केवो होय?
प्रश्न:– दरेक वस्तुनी क्रमबद्धपर्याय पोतपोताथी ज थाय छे––आवी क्रमबद्धपर्यायनी वात सांभळशे तो
लोको देव–गुरु–शास्त्रनुं बहुमान छोडी देशे, ने जिनमंदिर वगेरे नहि करावे?
उत्तर:– अरे भाई! आ समजशे तेने ज समजावनारनुं साचुं बहुमान आवशे. निश्चयथी पोताना
ज्ञायकस्वभावने जाण्यो त्यारे क्रमबद्धपर्यायनुं ज्ञान साचुं थयुं. ज्ञायकस्वभावनी सन्मुख थईने क्रमबद्धपर्यायनी
अपूर्व वात जे समज्यो तेने ते वात समजावनारा वीतरागी देव–गुरु–शास्त्र प्रत्ये भक्तिनो भाव आव्या विना
रहेशे नहि. ‘हुं ज्ञायक छुं’ एवी ज्ञायकनी श्रद्धा करीने जे क्रमबद्धपर्यायने जाणशे ते पोतानी भूमिकाना रागने
पण जाणशे.