कांई आंधळो मारग नथी. साधकदशामां राग होय, –ते रागनुं वलण कुदेवादि प्रत्ये न जाय, पण साचा देव–
गुरुना बहुमान तरफ वलण जाय. साचुं समजे ते स्वछंदी थाय ज नहि, साची समजणनुं फळ तो वीतरागता
छे. वीतरागी देव–गुरुनुं बहुमान आवतां बहारमां जिनमंदिर कराववा वगेरेनो भाव आवे; बाकी बहारनुं तो
काळे तेवो राग थाय ने ते वखते ज्ञान पण तेवुं जाणे, छतां ते ज्ञानने कारणे के रागने कारणे बहारनी क्रिया
नथी. ते वखते य ज्ञानी जीव तो पोताना ज्ञानभावनो ज कर्ता छे.
राग ते आस्रवतत्त्व छे; ने
बहारनी शरीरादिनी क्रिया ते अजीवतत्त्व छे.
तेमां कोईने कारणे कोई नथी. आम दरेक तत्त्वोनुं भिन्न भिन्न स्वरूप ओळखवुं जोईए, तो ज साची
पोतानो प्रभाव छे. पण जीवनो प्रभाव अजीव उपर के अजीवनो प्रभाव जीव उपर नथी; दरेक तत्त्वो भिन्न
भिन्न छे, एकनो बीजामां अभाव छे, तेथी कोईनो प्रभाव बीजा उपर पडतो नथी. एक उपर बीजानो प्रभाव
कहेवो ते फक्त निमित्तनुं कथन छे. (विशेष माटे जुओ, आत्मधर्म अंक १३३, प्रवचन चोथुं, नं. १०८)
तेवा निमित्तमां ऊभो होय, छतां क्रमबद्धमां मुनिपणुं के सम्यग्दर्शन आवी जाय––एम कदी बनतुं ज नथी. अरे
भाई! क्रमबद्धपर्याय तो शुं चीज छे तेनी तने खबर नथी. सम्यग्दर्शन अने मुनिपणानी दशा केवी होय तेनी
पण तने खबर नथी. अंतरना ज्ञायकभावमां लीन थईने मुनिदशा प्रगटी त्यां निमित्तपणे जड शरीरनी दशा
नग्न ज होय. हवे आ वात प्रसिद्धिमां आवतां केटलाक स्वछंदी लोको क्रमबद्धना शब्दो पकडीने वात करतां शीख्या
छे. पण जो क्रमबद्धपर्याय यथार्थ समजे तो तो निमित्त वगेरे चारे पडखांनो मेळ मळवो जोईए.
उत्तर:– जेनुं ज्ञान परथी खसीने ज्ञायकमां एकाग्र थयुं छे तेने ज क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय छे, अने
११९मी गाथामां कह्युं छे के––
निज आत्मानो आश्रय करीने ज्ञान एकाग्र थयुं ते निश्चयधर्मध्यान छे, अने ते निश्चयधर्मध्यान ज सर्वे