Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 21 of 45

background image
: ८२ : आत्मधर्म : मागसर–पोष : २४८१ :
कई भूमिकामां केवो राग होय अने केवा निमित्तो होय तेनो पण ते विवेक करशे. आ तो जागतो मारग छे, आ
कांई आंधळो मारग नथी. साधकदशामां राग होय, –ते रागनुं वलण कुदेवादि प्रत्ये न जाय, पण साचा देव–
गुरुना बहुमान तरफ वलण जाय. साचुं समजे ते स्वछंदी थाय ज नहि, साची समजणनुं फळ तो वीतरागता
छे. वीतरागी देव–गुरुनुं बहुमान आवतां बहारमां जिनमंदिर कराववा वगेरेनो भाव आवे; बाकी बहारनुं तो
तेना काळे थवा योग्य होय तेम थाय छे. ए ज रीते अष्टद्रव्योथी भगवाननी पूजा वगेरेमां पण समजी लेवुं. ते
काळे तेवो राग थाय ने ते वखते ज्ञान पण तेवुं जाणे, छतां ते ज्ञानने कारणे के रागने कारणे बहारनी क्रिया
नथी. ते वखते य ज्ञानी जीव तो पोताना ज्ञानभावनो ज कर्ता छे.
ज्ञानभाव ते जीवतत्त्व छे;
राग ते आस्रवतत्त्व छे; ने
बहारनी शरीरादिनी क्रिया ते अजीवतत्त्व छे.
तेमां कोईने कारणे कोई नथी. आम दरेक तत्त्वोनुं भिन्न भिन्न स्वरूप ओळखवुं जोईए, तो ज साची
तत्त्वार्थश्रद्धा थाय.
[प८] पोतानी पर्यायमां ज पोतानो प्र... भाव छे.
कोई कहे छे के आपना प्रभावथी आ बधुं थयुं! ––ए तो बधी विनयनी भाषा छे. खरेखर ‘प्रभाव’
कोईनो कोई उपर नथी. सौनी पर्यायमां पोतपोतानो ज प्र... भाव (विशेष प्रकारे भवन) छे. आत्मा पोताना
ज्ञानरूप विशेषभावे परिणमे तेमां ज तेनो प्रभाव छे, पोते पोताना जे निर्मळ भावरूपे परिणमे तेमां ज
पोतानो प्रभाव छे. पण जीवनो प्रभाव अजीव उपर के अजीवनो प्रभाव जीव उपर नथी; दरेक तत्त्वो भिन्न
भिन्न छे, एकनो बीजामां अभाव छे, तेथी कोईनो प्रभाव बीजा उपर पडतो नथी. एक उपर बीजानो प्रभाव
कहेवो ते फक्त निमित्तनुं कथन छे. (विशेष माटे जुओ, आत्मधर्म अंक १३३, प्रवचन चोथुं, नं. १०८)
[प९] क्रमबद्धना नामे मूढ जीवना गोटा.
केटलाक मूढ लोको एम गोटा वाळे छे के “पर्याय क्रमबद्ध ज्यारे थवानी होय त्यारे थई जाय छे, माटे
गमे ते वेषमां ने गमे ते दशामां मुनिपणुं आवी जाय.” पण गमे तेवा खोटा संप्रदायने मानतो होय ने गमे
तेवा निमित्तमां ऊभो होय, छतां क्रमबद्धमां मुनिपणुं के सम्यग्दर्शन आवी जाय––एम कदी बनतुं ज नथी. अरे
भाई! क्रमबद्धपर्याय तो शुं चीज छे तेनी तने खबर नथी. सम्यग्दर्शन अने मुनिपणानी दशा केवी होय तेनी
पण तने खबर नथी. अंतरना ज्ञायकभावमां लीन थईने मुनिदशा प्रगटी त्यां निमित्तपणे जड शरीरनी दशा
नग्न ज होय. हवे आ वात प्रसिद्धिमां आवतां केटलाक स्वछंदी लोको क्रमबद्धना शब्दो पकडीने वात करतां शीख्या
छे. पण जो क्रमबद्धपर्याय यथार्थ समजे तो तो निमित्त वगेरे चारे पडखांनो मेळ मळवो जोईए.
[६०] ज्ञायक अने क्रमबद्धनो निर्णय करीने स्वाश्रयनुं परिणमन थयुं तेमां व्रतप्रतिक्रमण
वगेरे बधुं जैनशासन आवी जाय छे.
प्रश्न:– आ क्रमबद्धपर्यायमां व्रत–समिति–गुप्ति–प्रतिक्रमण–प्रत्याख्यान–प्रायश्चित वगेरे क्यां आव्युं?
उत्तर:– जेनुं ज्ञान परथी खसीने ज्ञायकमां एकाग्र थयुं छे तेने ज क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय छे, अने
ज्ञायकमां एकाग्र थईने परिणम्यो तेमां व्रत–समिति वगेरे बधुं आवी जाय छे. ज्ञायकस्वभावमां ज्ञाननी
एकाग्रता ते ध्यान छे, ने ते ध्यानमां निश्चयव्रत–तप–प्रत्याख्यान वगेरे बधुं समाई जाय छे. नियमसारनी
११९मी गाथामां कह्युं छे के––
आत्मस्वरूप अवलंबनारा भावथी सौ भावने त्यागी शके छे जीव, तेथी ध्यान ते सर्वस्व छे.
निज आत्मानो आश्रय करीने ज्ञान एकाग्र थयुं ते निश्चयधर्मध्यान छे, अने ते निश्चयधर्मध्यान ज सर्वे
परभावोनो अभाव करवाने समर्थ छे; ‘तम्हा झाणं हवे सव्वं’ ––तेथी ध्यान ते सर्वस्व छे; शुद्ध आत्माना
ध्यानमां बधा निश्चय अचार समाई जाय छे.
आत्माना ज्ञायक स्वभावनो अने क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय जे नथी करतो तेने कदी धर्मध्यान होतुं नथी.