: ८४ : आत्मधर्म : मागसर–पोष : २४८१ :
तो मानो, तेथी तेमनी मान्यता मिथ्या थशे, पण वस्तुस्वरूप तो जे छे ते ज रहेशे, ते कांई नहि फरे.
ज्ञायकआत्मा एक साथे त्रणकाळ त्रणलोकने संपूर्णपणे जाणे ने जगतना बधा पदार्थो क्रमबद्धपर्याय पणे
परिणमे––एवुं जे वस्तुस्वरूप छे ते कोईथी फेरवी शकाय तेम नथी. ज्ञानी आवुं वस्तुस्वरूप जाणीने,
ज्ञायकसन्मुख ज्ञानभावे ऊपजे छे, अज्ञानी विपरीत मानीने मिथ्याद्रष्टि थाय छे.
[४]
प्रवचन चोथुं
[वर स. २४८० अस सद दसम]
[६३] क्रमबद्धमां ज्ञायकसन्मुख निर्मळ परिणमननी धारा वहे––एनी ज मुख्य वात छे.
आ सर्वविशुद्धज्ञानअधिकारमां मुख्य वात ए छे के पोताना ज्ञायकस्वभावनी सन्मुख थईने जे विशुद्ध
परिणाम ऊपज्या तेनी ज आमां मुख्यता छे; क्रमबद्ध परिणाममां ज्ञानीने निर्मळ परिणाम ज थाय छे. ज्ञानी
स्वसन्मुख थईने श्रद्धा–ज्ञान–आनंद वगेरेना निर्मळ परिणमननी नियतधाराए परिणमे छे, तेने
क्रमबद्धपर्यायमां शुद्धतानो प्रवाह चाल्यो जाय छे.
बधा पदार्थोमां मुख्य तो आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे; केम के ज्ञान ज स्व–परने जाणे छे. ज्ञानस्वभाव न
होय तो स्व–परने जाणे कोण? माटे ज्ञानस्वभाव ज मुख्य छे. ज्ञानस्वभावना निर्णयमां साते तत्त्वनो, तेमज
देव–गुरु–शास्त्रनोने क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय समाई जाय छे. अहीं लोकालोकने जाणवाना सामर्थ्यपणे ज्ञान
परिणमे छे, ने सामे लोकालोक ज्ञेयपणे क्रमबद्ध परिणमे छे; आवो ज्ञेय–ज्ञायकनो मेळ छे पण कोईने कारणे कोई
नथी. सौ पोतपोताना क्रमबद्धप्रवाहमां स्वयं परिणमी रह्या छे.
[६४] ज्ञायकभावना क्रमबद्धपरिणमनमां सात तत्त्वोनी प्रतीत.
पोताना क्रमबद्ध थता परिणामो साथे तन्मय थईने दरेक द्रव्य समये समये परिणमे छे, द्रव्य–क्षेत्र–
काळ–भाव चारेय समये समये नवी नवी पर्यायपणे परिणमी रह्या छे. स्वस्वभावसन्मुख परिणमतो
आत्मा पोताना ज्ञाताभाव साथे अभेद छे, ने रागथी जुदो छे. ––आवा आत्मानी प्रतीत ते जीवतत्त्वनी
खरी प्रतीत छे.
मारो ज्ञायक आत्मा ज्ञायकभावपणे क्रमबद्ध ऊपजतो थको तेमां ज तन्मय छे, ने अजीवमां तन्मय
नथी–रागमां तन्मय नथी;–आवी स्वसन्मुख प्रतीतमां साते तत्त्वोनी श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन आवी जाय छे.
(१) ज्ञायकभाव साथे जीवने अभेदपणुं छे–एवी श्रद्धा थई तेमां ज्ञायकस्वभावी जीवनी प्रतीत
आवी गई.
(२) पोताना ज्ञायकभावनी क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजता जीवने अजीव साथे एकपणुं नथी; तेमज
पोतानी क्रमबद्ध पर्यायपणे ऊपजता अजीवने जीव साथे एकपणुं नथी, ––ए रीते अजीवतत्त्वनी श्रद्धा पण
आवी गई.
(३–४) हवे, ज्ञायकभावे परिणमतो साधकजीव ते ते काळना रागादिने पण जाणे छे, –परंतु ते
रागादिने पोताना शुद्ध जीव साथे तन्मय नथी जाणतो, पण आस्रव–बंध साथे तेने तन्मय जाणे छे;––ए रीते
आस्रव अने बंध