Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: मागसर–पोष : २४८१ : आत्मधर्म : ८५ :
तत्त्वोनी श्रद्धा पण आवी गई.
(प–६) ज्ञायकस्वभावना आश्रये पोताने श्रद्धा–ज्ञानआनंद वगेरेना निर्मळ परिणामो थाय छे, ते
संवर–निर्जरा छे, तेने पण ज्ञानी जाणे छे, एटले संवर–निर्जरानी प्रतीत पण आवी गई.
(७) संवर–निर्जरारूप अंशे शुद्धपर्यायपणे तो पोते परिणमे ज छे, ने पूर्ण शुद्धतारूप मोक्ष दशा केवी
होय ते पण प्रतीतमां आवी गयुं छे, एटले मोक्षतत्त्वनी श्रद्धा पण आवी गई.
आ रीते ज्ञायकभावनी क्रमबद्धपर्यायपणे परिणमता जीवने साते तत्त्वोनी प्रतीत आवी ज गई छे. (क्रमबद्ध
–पर्यायना निर्णयमां साते तत्त्वोनी श्रद्धा अने जैनशासन, –ए माटे जुओ–अंक १३३, प्रवचन ४, नं ९३–९प)
[६प] अज्ञानीने साते तत्त्वोमां भूल.
(१–२) अज्ञानीने पोताना ज्ञायकभावनी खबर नथी अने शरीरादि अजीवनी क्रमबद्धपर्यायोने हुं
फेरवी शकुं छुं––एम ते माने छे एटले अजीव साथे पोतानी एकता माने छे, तेथी तेने जीव–अजीव तत्त्वनी
श्रद्धामां भूल छे.
(३–४) वळी शुभराग वगेरे पुण्यभाव थाय ते आस्रव साथे तन्मय छे, तेने बदले तेने धर्म माने छे
एटले शुद्ध–जीव साथे एकमेक माने छे तेथी तेने आस्रव–बंध तत्त्वोनी श्रद्धामां भूल छे.
(प–६) आत्मानी शुद्ध वीतरागीदशा ते संवर–निर्जरा छे, तेने बदले पंचमहाव्रतादि शुभरागने संवर–
निर्जरा माने छे, तेने संवर–निर्जरा तत्त्वनी श्रद्धामां भूल छे.
(७) अने मोक्षनुं कारण पण तेणे विपरीत मान्युं तेथी तेने मोक्षनी श्रद्धामां पण भूल छे.
आम अज्ञानीने साते तत्त्वोनी श्रद्धामां भूल छे.
[६६] भेदज्ञाननो अधिकार.
जीव–अजीवनी क्रमबद्धपर्यायने ओळखे तो तेमां भेदज्ञान अने साते तत्त्वोनी यथार्थ श्रद्धा आवी जाय
छे. आ रीते, आ भेदज्ञाननो अधिकार छे.
[६७] ‘क्रमबद्धपर्याय’ नी उत्पत्ति पोतानी अंतरंग योग्यता सिवाय बीजा कोई
बाह्यकारणथी थती नथी.
क्रमबद्धपर्याय कहो के ‘योग्यता’ कहो, ते प्रमाणे ज कार्य थाय छे. पर्यायनी योग्यता पोते ज
अंतरंगकारण छे, बीजु निमित्त ते तो बाह्यकारण छे. अंतरंग कार्यने अनुसार ज दरेक कार्य थाय छे,
बाह्यकारणथी कार्यनी उत्पत्ति थती नथी. श्री षट्खंडागमनी धवला टीकामां वीरसेनाचार्यदेवे आ संबंधमां घणुं
अलौकिक स्पष्टीकरण कर्युं छे.
मोहनीय कर्मना परमाणुं उत्कृष्ट ७० कोडाकोडी सागरोपम सुधी रहे, ज्यारे आयुष्य कर्मना परमाणुं
उत्कृष्ट ३३ सागरोपमनी स्थिति सुधी रहे, ––आवी ज ते ते कर्मप्रकृत्तिनी स्थिति छे. कोई पूछे के मोहकर्मनी
उत्कृष्ट स्थिति ७० कोडाकोडी सागरनी अने आयुकर्मनी उत्कृष्ट स्थिति फक्त ३३ सागरनी ज, –एम केम? तो
षटखंडागममां आचार्यदेव कहे छे के प्रकृत्ति विशेष होवाथी ए प्रकारे स्थितिबंध थाय छे, एटले के ते ते विशेष
प्रकृतिओनी तेवी ज अंतरंग योग्यता छे, ने तेनी योग्यतारूप अंतरंग कारणथी ज तेवुं कार्य थाय छे. एम
कहीने त्यां आचार्यदेवे महान सिद्धांत जणाव्यो छे के “बधे ठेकाणे अंतरंगकारणथी ज कार्यनी उत्पत्ति थाय छे, –
–एवो निश्चय करवो.”
बीजुं द्रष्टांत लईए: दसमा गुणस्थाने जीवने लोभनो सूक्ष्म अंश अने योगनुं कंपन छे, त्यां तेने मोह
अने आयु सिवायना छ कर्मो बंधाय छे; तेमां ज्ञानावरणादिनी अंतर्मुहूर्तनी ज स्थिति पडे छे, ने साता
वेदनीयनी स्थिति १२ मुहूर्तनी, तथा गोत्र अने नामकर्मनी स्थिति आठ मुहूर्त बंधाय छे. छए कर्मोनुं बंधन
एक साथे थतुं होवा छतां, आ प्रमाणे स्थितिमां फेर पडे छे. स्थितिमां आम फेर केम पडे छे? एवो प्रश्न थतां
आचार्यदेव उत्तर आपे छे के ‘प्रकृतिविशेष होवाथी’ ––एटले के ते ते खास प्रकृत्तिनुं अंतरंग कारण ज तेवुं छे,
अने ते अंतरंगकारणथी ज कार्यनी उत्पत्ति थाय छे.
उपर जुदा जुदा कर्मनी जुदी जुदी स्थिति संबंधमां कह्युं ते ज प्रमाणे “वेदनीयकर्ममां परमाणुओनी
संख्या झाझी, ने बीजामां थोडी–एम केम? ” एवुं कोई पूछे तो तेनुं पण ए ज समाधान छे के ते ते
प्रकृतिओनो तेवो ज स्वभाव छे. पर्यायनो स्वभाव कहो, योग्यता कहो, के अंतरंगकारण कहो––तेनाथी ज
कार्यनी उत्पत्ति थाय छे. ए सिवाय बाह्यकारणोथी कार्यनी उत्पत्ति थती नथी.