स्वभावमां तन्मय थईने ज्ञानभावे ऊपजतो जीव पोताना ज्ञानपरिणामनो उत्पादक छे, पण रागादि साथे
तन्मय थईने ते जीव ऊपजतो नथी तेथी ते जीव रागादिनो उत्पादक नथी; अने रागादिनो उत्पादक न होवाथी
कर्मबंधनमां ते निमित्त पण नथी; ए रीते ते जीव अकर्ता ज छे, आ आखो विषय ज अंर्तद्रष्टिनो छे. अंतरनी
ज्ञायकनी द्रष्टि विना आवुं अकर्तापणुं के क्रमबद्धपणुं समजाय तेवुं नथी.
आत्मज्ञाननी प्राप्ति थाय त्यां एम कहेवाय के “अहो! आ गुरुनो मारा उपर अनंत उपकार थयो...” जो के गुरु
कांई शिष्यना ज्ञानना उत्पादक नथी, छतां त्यां तो विनय माटे निमित्तथी गुरुनो उपकार कहेवामां आवे छे; परंतु
तेवी रीते अहीं ज्ञानीने तो मिथ्यात्वादि कर्मो साथे एवो निमित्त–नैमित्तिकभाव पण लागु पडतो नथी. ज्ञानी
निमित्त थईने मिथ्यात्वादि कर्मने ऊपजावे एम बनतुं नथी. “अहो! गुरु ज मारा ज्ञानना उत्पादक छे, गुरुए ज
मने ज्ञान आप्युं, गुरुए ज आत्मा आप्यो” ––एम गुरुना उपकारना निमित्ते कहेवाय–एवो व्यवहार तो
ज्ञानीने होय, पण निमित्त थईने मिथ्यात्वादि कर्मना उत्पादक थाय–एवो व्यवहार ज्ञानीने लागु पडतो नथी.
ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिथी निश्चय अकर्तापणुं जाणे, त्यारे भूमिका मुजब केवो व्यवहार होय तेनी खबर पडे.
ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि वगर एकला व्यवहारने जाणवा जाय–ते तो आंधळो छे, स्व–परप्रकाशकज्ञान जाग्या विना
व्यवहारने जाणशे कोण? अज्ञानी तो व्यवहारने जाणतां तेने ज आत्मानुं परमार्थ स्वरूप मानी लेशे, एटले तेने
निश्चयनुं के व्यवहारनुं ज्ञान साचुं होतुं नथी. ज्ञाता जाग्यो ते ज व्यवहारने जेम छे तेम जाणे छे.
मोह महातम आतमअंग, क्यिो परसंग महातम घेरो।।
ज्ञानकला उपजी अब मोहि, कहूं गुन नाटक आगम केरो।
जासु प्रसाद सधे सिवमारग, वेगिमिटेभववास वसेरो।।
भेदज्ञानरूपी अपूर्व ज्ञानकळा उपजी; जेवा सिद्धभगवान ज्ञायकबिंब छे, तेम मारो स्वभाव पण ज्ञायक ज छे, –
–एम ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि अने अनुभवथी ज्ञानकळा उपजी. आ सिवाय बीजी रीत माने तो ते
सिद्धभगवानने के पंचपरमेष्ठीपदने मानतो नथी.
थवानो प्रश्न ज रहेतो नथी. अज्ञानीने ऊंधी द्रष्टिमां कर्म साथे निमित्त–नैमित्तिकपणानो व्यवहार छे; आ
ज्ञायकद्रष्टिमां मिथ्यात्वादि कर्मना कर्तापणारूप ते व्यवहारनो लोप थई जाय छे. अज्ञानीने व्यवहारनो अभाव
नथी करवो, पण हजी व्यवहार राखवो छे, ––एटले कर्म साथे निमित्तनैमित्तिकसंबंधनो व्यवहार राखीने तेने
संसारमां रखडवुं छे––एवो एनो अर्थ थयो. ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिथी कर्म साथेनो निमित्त–नैमित्तिक संबंध
तोडी नांख्यो त्यां द्रष्टि अपेक्षाए तो समकीति मुक्त ज छे. आ प्रमाणे द्रष्टिमां व्यवहारनो निषेध कर्या पछी
साधकपणामां जे जे भूमिकामां जेवो जेवो व्यवहार होय छे तेने ते सम्यग्ज्ञान वडे जाणे छे. अने पछी पण,
ज्ञायकस्वभावमां एकाग्रता वडे शुभरागरूप–