: मागसर–पोष : २४८१ : आत्मधर्म : ८९ :
ज्यारे सामान्यधर्म अने विशेषधर्म–एम बंने धर्मो ज सिद्ध करवा होय त्यारे तो एम कहेवाय के पर्याय
ते पर्यायधर्मथी ज छे, ––द्रव्यने लीधे नहि. केमके जो सामान्य अने विशेष (अर्थात् द्रव्य अने पर्याय) बंने
धर्मोने निरपेक्ष न मानतां, सामान्यने लीधे विशेष मानो तो विशेषधर्मनी हानि थाय छे; माटे पर्याय पण
पोताथी सत् छे. ––पर्यायधर्म निरपेक्ष सिद्ध करवो होय त्यारे ए प्रमाणे कहेवामां आवे छे.
समन्तभद्रस्वामी ‘आप्त–मीमांसा’ मां कहे छे के––
(श्लोक ७३:) जो धर्म धर्मी आदिके एकान्त करि आपेक्षिक सिद्धि मानीए, तो धर्म धर्मी दोऊ ही
न ठहरे। बहुरि अपेक्षा विना एकान्त करि सिद्धि मानीए तो सामान्य विशेषपणां न ठहरे।
(श्लोक ७प:) धर्म अर धर्मीके अविनाभाव है सो तो परस्पर अपेक्षा करि सिद्ध है, धर्म विना धर्मी
नांही! बहुरि धर्म, धर्मीका स्वरूप है सो परस्पर अपेक्षा करि सिद्ध नांही है, स्वरूप है सो स्वतःसिद्ध है।
प्रवचनसारनी १७२मी गाथामां ‘अलिंगग्रहण’ ना अर्थमां कह्युं छे के “××× आ रीते आत्मा द्रव्यथी
नहि आलिंगत एवो शुद्धपर्याय छे.”
वळी १०१मी गाथामां कहे छे के––“अंशी एवा द्रव्यना, नष्ट थतो भाव, उपजतो भाव अने अवस्थित
रहेतो भाव ए स्वरूप त्रण अंशो भंग–उत्पादक–ध्रौव्यस्वरूप निजधर्मो वडे आलंबित एकी साथे ज भासे छे.”
व्यय नष्ट थता भावने आश्रित छे, उत्पाद ऊपजता भावने आश्रित छे अने ध्रौव्य टकता भावने आश्रित छे.
वळी योगसारमां कहे छे के–
ज्ञानद्रष्टि चारित्राणि हियंते नाक्षगोचरेः।
क्रियंते न च गुर्वाधैः सेव्यमानैरनारतं।। १८।।
उत्पद्यते विनश्यंति जीवस्य परिणामिनः।
ततः स्वयं स दाता न परतो न कदाचन।। १९।।
––आमां कहे छे के आत्मामां ज्ञानादिकनी हीनता के अधिकता पोतानी पर्यायना कारणे ज थाय छे.
ज्ञान–दर्शन–चारित्रनुं न तो ईन्द्रियोना विषयथी हरण थाय छे, के न तो गुरुओनी निरंतर सेवाथी तेमनी
उत्पत्ति थाय छे; परंतु जीव पोते परिणमनशील होवाथी समये समये तेना गुणोनी पर्याय पलटे छे, ––
मतिज्ञानादिक पर्यायोनी उत्पत्ति अने विनाश थया करे छे; तेथी मतिज्ञानादिनो उत्पाद के विनाश परथी पण
नथी तेम ज द्रव्य पोते पण तेनुं दाता नथी. समये समये पर्यायनी योग्यताथी पर्याय थाय छे, सामान्यद्रव्यने
तेनुं दाता कहेवुं ते सापेक्ष छे; पर्यायने निरपेक्षपणे जुओ तो ते पर्याय स्वयं तेवी परिणमी छे. ते समयनो
पर्यायधर्म ज तेवो छे, सामान्यद्रव्यने तेनुं दाता कहेवुं ते सापेक्ष छे; पण द्रव्य–पर्यायनी निरपेक्षताना कथनमां
ए वात न आवे. निरपेक्षता विना एकांत सापेक्षपणुं ज माने तो सामान्यविशेष बे धर्मो ज सिद्ध न थई शके.
प्रवचनसारनी १६मी गाथामां आचार्यदेव कहे छे के: शुद्धोपयोगथी थती शुद्धस्वभावनी प्राप्ति
अन्यकारकोथी निरपेक्ष होवाथी अत्यंत आत्माधीन छे. शुद्धोपयोगथी केवळज्ञाननी प्राप्ति थाय तेमां आत्मा
पोते स्वयंमेव छ कारकरूप थतो होवाथी ‘स्वयंभू’ कहेवाय छे. द्रव्य पोते ज पोतानी अनंत शक्तिरूप संपदाथी
परिपूर्ण होवाथी पोते ज छ कारकरूप थईने पोतानुं कार्य नीपजाववाने समर्थ छे; तेने बा सामग्री कांई मदद करी
शकती नथी. अहो! एकेक पर्यायना छए कारको स्वतंत्र छे.
षट्खंडागम–सिद्धांतमां पण कह्युं छे के बधे ठेकाणे अंतरंग कारणथी ज कार्यनी उत्पत्ति थाय छे––एवो
निश्चय करवो. त्यां अंतरंगकारण कहेतां पर्यायनी योग्यता बताववी छे. जुदा जुदा कर्मोना स्थितिबंधमां
हीनाधिकता केम छे? –एवा प्रश्नना उत्तरमां सिद्धांतकार कहे छे के प्रकृतिविशेष होवाथी, एटले के ते ते प्रकृतिनो
तेवो ज विशेष स्वभाव होवाथी ए प्रमाणे हीनाधिक स्थितिबंध थाय छे; तेनी योग्यतारूप अंतरंग कारणथी ज
कार्यनी उत्पत्ति थाय छे, बाह्य कारणोथी कार्यनी उत्पत्ति थती नथी.
(विशेष माटे जुओ–आ अंकमां प्रवचन चोथुं. नं. ६७)
अहीं (समयसार गा. ३०८ थी ३११मां) कहे छे के अन्यद्रव्यथी निरपेक्षपणे, स्वद्रव्यमां ज कर्ता–कर्मनी
सिद्धि छे; अने तेथी जीव परनो अकर्ता छे.
अत्यारे आ चालता अधिकारमां पर्यायनुं निरपेक्षपणुं सिद्ध करवानी मुख्यता नथी, परंतु दरेक द्रव्यने
पोतानी क्रमबद्धपर्याय साथे तन्मयपणुं होवाथी परनी साथे तेने कर्ताकर्मपणुं नथी––एम अकर्तापणुं सिद्ध
करीने, ‘ज्ञायक