: ९० : आत्मधर्म : मागसर–पोष : २४८१ :
आत्मा कर्मनो अकर्ता छे’ ––एम बताववुं छे. क्रमबद्धपर्यायपणे ऊपजता द्रव्यने पोतानी पर्याय साथे
अभेदपणुं छे. ज्ञायकआत्मा स्वसन्मुख थईने निर्मळ पर्यायपणे ऊपज्यो तेमां ते तन्मय छे, पण रागादिमां
तन्मय नथी, तेथी ते रागादिनो कर्ता नथी तेम ज कर्मोनो निमित्तकर्ता पण नथी. आ रीते आत्मा अकर्ता छे.
[७८] साधकने चारित्रनी एक पर्यायमां अनेक बोल; तेमां वर्ततुं भेदज्ञान; अने तेना
द्रष्टांते निश्चयव्यवहारनो जरूरी खुलासो.
साधकदशामां ज्ञानीने श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र वगेरे अनंत गुणोनी पर्यायो स्वभावना अवलंबने निर्मळ थती
जाय छे. जो के हजी चारित्रगुणनी पर्यायमां अमुक रागादि पण थाय छे, परंतु ज्ञानीने तेमां एकता नथी तेथी रागादिनुं
तेने खरेखर कर्तापणुं नथी. चारित्रनी पर्यायमां जे रागादि छे तेने ते आस्रव–बंधनुं कारण जाणे छे, ने स्वभावना
अवलंबने जे शुद्धता थई छे तेने संवर–निर्जरा जाणे छे; ए रीते आस्रव अने संवरने भिन्नभिन्न समजे छे.
जुओ, ज्ञानीने चारित्रगुणनी एक पर्यायमां संवरनिर्जरा, आस्रव अने बंध ए चारे प्रकार एक साथे
वर्ते छे, तेने समयभेद नथी, एक ज पर्यायमां एक साथे चारे प्रकार वर्ते छे, छतां तेमां आस्रव ते संवर नथी,
संवर ते आस्रव नथी. वळी तेना कर्ता–कर्म वगेरे छए कारको स्वतंत्र छे. जे संवरनुं कर्तापणुं छे ते आस्रवनुं
कर्तापणुं नथी, अने जे आस्रवनुं कर्तापणुं छे ते संवरनुं कर्तापणुं नथी.
आस्रव–बंध संवर अने निर्जरा एवा चारे प्रकार एक साथे तो चारित्रगुणनी पर्यायमां ज होय छे,
अने ते साधकने ज होय छे.
अहो, एक पर्यायमां आस्रव ने संवर बंने एक साथे वर्ते, छतां बंनेना छ कारको जुदा! हजी तो
बहारनां कारणोथी आस्रव के संवर माने ते अंतरना सूक्ष्म भेदज्ञाननी आ वात क्यांथी समजे? आस्रवने
कारणे आस्रव, ने संवरना कारणे संवर, ––बंने एक साथे छतां बंनेनां कारण जुदां. जो आस्रवने कारणे संवर
माने तो ते मिथ्याद्रष्टि छे.
––ए ज रीते, व्यवहार अने निश्चय बंने एक साथे (साधकने) होय छे; पण त्यां व्यवहारना कारणे
निश्चय माने के व्यवहारसाधन करतां करतां तेनाथी निश्चय प्रगटी जशे––एम माने तो ते पण मिथ्याद्रष्टि छे,
तेने आस्रव अने संवर तत्त्वनी खबर नथी. व्यवहार रत्नत्रयनो जे शुभराग छे ते तो आस्रव छे, ने निश्चय
सम्यग्दर्शनज्ञान–चारित्ररूप जे मोक्षमार्ग छे ते तो संवर–निर्जरा छे; आस्रव अने संवर ते बंने भिन्न भिन्न
तत्त्वो छे, बंनेना कारण भिन्न छे. तेने बदले व्यवहारना कारणे निश्चय थवानुं मान्युं तो तेणे आस्रवथी संवर
मान्यो एटले आस्रव अने संवर तत्त्वने तेणे भिन्न भिन्न न मान्या पण एक मान्या, तेथी तत्त्वार्थश्रद्धानमां ज
तेने भूले छे, ––ते मिथ्याद्रष्टि छे.
[७९] ! क्रमबद्धपर्यायनी ऊंडी वात.
अहीं तो ज्ञायकद्रष्टिनी सूक्ष्म वात छे. ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिमां ज्ञानी निर्मळ पर्यायना ज कर्तापणे
परिणमे छे. बीजा कारकोथी निरपेक्ष थईने, पोतपोताना स्वभावना ज छए कारकोथी श्रद्धा–ज्ञान–आनंद वगेरे
अनंतगुणो ज्ञायकना अवलंबने निर्मळ क्रमबद्धपर्यायपणे ज्ञानीने परिणमी रह्या छे; आनुं नाम अपूर्व धर्म छे,
ने आ ज मुक्तिनो मार्ग छे. ज्ञायकस्वभावना ज अवलंबन सिवाय, रागना के व्यवहारना अवलंबने
मोक्षमार्ग माने तो ते जीव आत्माना ज्ञायकस्वभावने, केवळीभगवानने के साततत्त्वोने जाणतो नथी; निर्मळ
क्रमबद्धपर्यायनी शुं स्थिति छे अर्थात् कई रीते क्रमबद्धपर्याय निर्मळ थाय छे––तेने पण ते जाणतो नथी तेथी
खरेखर ते क्रमबद्धपर्यायने ओळखतो नथी. आ तो ऊंडी वात छे, भाई!
[८०] ‘मोतीनो शोधक’ ऊंडा पाणीमां उत्तरे छे;––तेम ऊंडे ऊतरीने आ वात जे समजशे ते
न्याल थई जशे!
प्रश्न:– ऊंडां पाणीमां ऊतरतां बूडी जवानी बीक छे?
उत्तर:– आ पाणीमां ऊतरे तो विकारनो मेल धोवाई जाय; आ ऊंडा पाणीमां ऊतर्या वगर वस्तु हाथ
आवे तेम नथी. दरियामांथी मोती शोधवा माटे पण ऊंडा पाणीमां ऊतरवुं पडे छे, कांठे ऊभो ऊभो हाथ लांबो
करे तो कांई मोती हाथमां न आवी जाय. तेम अंतरना ज्ञायकस्वभावनी ने क्रमबद्धपर्यायनी आ वात अंतरमां
ऊंडे ऊतर्या विना समजाय तेवी नथी. आ तो