: मागसर–पोष : २४८१ : आत्मधर्म : ९१ :
अलौकिक वात बहार आवी गई छे, जे समजशे ते न्याल थई जशे...
‘सहेजे समुद्र उल्लसीयो त्यां मोती तणाया जाय,
भाग्यवान कर वापरे तेनी मूठी मोतीए भराय;’
अहीं ‘भाग्यवान’ एटले अंतरना पुरुषार्थवान! अंर्तस्वभावनी द्रष्टिनो प्रयत्न करे तेने मूठी मोतीए
भराय’ एटले के निर्मळ–निर्मळ क्रमबद्धपर्यायो थती जाय. पण जे एवो प्रयत्न नथी करतो तेने माटे कहे छे के–
‘भाग्यहीन कर वापरे तेनी शंखले मूठी भराय’ समजवानो प्रयत्न करीने अंतरमां तो ऊतरे नहि ने
एम ने एम एकला शुभभावमां रोकाई रहे तो तेने ‘शंखले मूठी भराय’ एटले के पुण्य बंधाय पण
स्वभावनी प्राप्ति न थाय, ––धर्मनो लाभ न थाय.
[८१] केवळज्ञाननो कक्को.
आ तो केवळज्ञाननो कक्को छे. अगाउना वखतमां (प०–६० वर्ष पहेलांं) ज्यारे धूली निशाळे भणवा
जाय त्यारे सौथी पहेलांं ‘सिद्धो वर्ण समाम्नाय’ एम गोखावता, एटले के वर्णउच्चारनो समुदाय स्वयंसिद्ध–
अनादिथी चाल्यो आवे छे. ते ज अमे शीखवशुं, एवो एनो अर्थ छे. तेम अहीं पण जे वात कहेवाय छे ते
अनादि केवळज्ञानथी सिद्ध थई गयेली छे. वळी कक्को शीखवता तेमां एम आवतुं के ‘कक्को... कक्को... केवडीओ;’
तेम अहीं पण आ केवळज्ञाननो कक्को शीखवाय छे. आ समज्या वगर धर्मनी शरूआत थती नथी. ‘कक्का’ मां
ज केवळज्ञाननी वात करतां ‘ब्रह्मविलास’ मां कह्युं छे के––
“कक्का” कहे करन वश कीजे, कनक कामिनी द्रष्टि न दीजे।
करीके ध्यान निरंजन गहिये, ‘केवलपद’ इह विधिसों लहिये।।
[८२] क्रमबद्धपर्याय ते वस्तुस्वरूप छे.
जुओ, आ क्रमबद्धपर्याय ते वस्तुनुं स्वरूप छे; ज्ञायकनो स्वभाव व्यवस्थित बधुं जाणवानो छे, ने
ज्ञेयोनो स्वभाव व्यवस्थित क्रमबद्ध नियमित पर्याये परिणमवानो छे. आ रीते आमां यथार्थ वस्तुस्थितिनो
निर्णय आवी जाय छे; आथी विपरीत माने तो ते वस्तुस्वरूपने जाणतो नथी.
कोई एम कहे के “निश्चयथी तो पर्यायो क्रमबद्ध, पण व्यवहारथी अक्रम” ––तो ते वात मिथ्या छे.
वळी कोई एम कहे के––“केवळीभगवानने माटे बधुं क्रमबद्ध छे केमके तेमने तो त्रण काळनुं पूरुं ज्ञान छे,
परंतु छद्मस्थने माटे अक्रमबद्ध छे केमके तेने त्रणकाळनुं पूरुं ज्ञान नथी” ––तो ए वात पण खोटी छे. ––एनी
मान्यता केवळी करतां विपरीत थई. कांई केवळीने माटे जुदुं वस्तुस्वरूप ने छद्मस्थने माटे बीजुं, ––एम नथी.
[८३] क्रमबद्धपर्यायमां निश्चयव्यवहारनी संधि, निमित्त–नैमित्तिकनी संधि, वगेरे बाबतनो
जरूरी खुलासो; अने ते संबंधमां स्वछंदीओनी विपरीत कल्पनाओनुं निराकरण.
वळी क्रमबद्धपर्यायमां एवुं पण नथी के वस्त्रादि सहित दशामां पण मुनिपणानो के केवळज्ञाननो क्रम
आवी जाय! आत्मामां मुनिदशानो क्रम होय त्यां शरीरमां दिगंबर दशा ज होय; वस्त्र छोडवा ते कांई जीवनुं
कार्य नथी पण ते वखते एवी ज दशा होय छे. मुनिदशानुं स्वरूप आथी विपरीत माने तो तेने निश्चय–
व्यवहारनी कांई खबर नथी, तेम ज क्रमबद्धपर्यायना नियमनी के देवगुरुना स्वरूपनी पण खबर नथी.
वळी मुनिपणुं होय त्यां, उभा उभा ज हाथमां ज आहार लेवानी क्रिया होय, पातरां वगेरेमां आहारनी
क्रिया त्यां न ज होय; छतां त्यां अजीवनी (हाथनी के आहारनी) तेवी पर्याय जीवे उत्पन्न करी छे––एम नथी;
ए प्रमाणे सदोष आहारनो त्याग वगेरेमां पण समजी लेवुं. ते ते दशामां एवो ज सहज निमित्त–नैमित्तिक मेळ
होय छे, तेनो मेळ तूटतो नथी; तेम ज जीव ज्ञायक मटीने अजीवनो कर्ता पण थतो नथी. ज्ञायकस्वभावनो
निर्णय करे तो अजीवना कर्तापणानी बधी भ्रमणा छूटी जाय, ने मिथ्यात्वादि कर्मोनुं निमित्तकर्तापणुं पण न रहे.
उपर जेम मुनिदशा संबंधमां कह्युं तेम बधी पर्यायोमां यथायोग्य समजवुं; जेमके समकीतिने मांसादिनो
खोराक होय ज नहि. अहीं जीवने सम्यग्दर्शन पर्यायनो क्रम होय ने सामे मांसादिनो खोराक पण होय––एम
कदी बनतुं नथी. तिर्यंच–सिंह वगेरे समकीत पामे, त्यां तेने पण मांसादिनो खोराक छूटी ज जाय छे. ––आवुं ज
ते भूमिकानुं स्वरूप छे. छतां परनी क्रियानो उत्पादक आत्मा