अने केवा निमित्तो छूटी जाय तेनी तेने खबर नथी. ––एवा स्वछंदी जीवने क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीत के
निर्दोष आहार ज होय छे, माटे निर्दोष आहारनुं निमित्त मेळवुं तो मारी मुनिदशा टकी रहेशे’ –एम कोई माने
तेने निमित्ताधीन द्रष्टि छे, स्वभावमां एकाग्रताथी मुनिदशा टके छे तेने बदले संयोगना आधारे मुनिदशा माने
छे तेनी द्रष्टि ज विपरीत छे. निमित्तने मेळववुं नथी पडतुं, पण सहजपणे ए ज प्रकारनुं निमित्त होय छे,
निमित्त–नैमित्तिक संबंध सहेजे बनी जाय छे.. “आपणने जेवुं कार्य करवानी ईच्छा थाय तेवां निमित्तो
मेळववा” ––एम माने तो तेने ज्ञानस्वभावनी के क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा क्यां रही? ––एने तो हजी ईच्छानुं
अने निमित्तनुं कर्तापणुं पड्युं छे. अरे भाई! निमित्तोने मेळववा के दूर करवा ते क्यां तारा हाथनी वात छे?
पोतामां ज्ञायक स्वभावनी द्रष्टि रहेती नथी एटले मिथ्याद्रष्टिपणुं थई जाय छे. हजी तो ज्ञायक परनो जाणनार
पण व्यवहारथी छे, निश्चयथी (–तन्मयपणे) पोते ज्ञायकनो जाणनार छे. ज्ञायक सन्मुख एकाग्रतामां परज्ञेयनुं
पण ज्ञान थई जाय छे, परंतु परनो उत्पादक नथी. आ रीते ज्ञायक आत्मा अकर्ता छे. सर्वज्ञ भगवान स्व–
परना ‘ज्ञायक’ छे, ज्ञेयोने जेम छे तेम प्रसिद्ध करे छे तेथी ‘ज्ञापक’ पण छे, ने पोताना ‘कारक’ पण छे; परंतु
परना कारक नथी. परना ज्ञायक तो छे पण कारक नथी. ए प्रमाणे बधाय आत्मानो आवो ज्ञायकस्वभाव छे ने
परनुं अकर्तापणुं छे. ए वात अहीं समजावी छे.
जईने आ रीते रजा मागवी, तेमने आ रीते समजाववा–एनुं वर्णन प्रवचनसार वगेरेमां खूब कर्युं छे; अने
हे आ शरीरनी जनेता! मारो अनादिनो जनक एवो जे मारो आत्मा, तेनी पासे जवानी मने आज्ञा आपो! –
भगवती दीक्षानी मने रजा आपो.” ––छतां अंतरमां ते वखते ज्ञान छे के आ वचननो कर्ता हुं नथी, मारा
कारणथी आ वचननुं परिणमन थतुं नथी.
भगवती मुनिदीक्षा आपो! ” ––त्यारे श्री गुरु पण तेने ‘आ तने शुद्धात्मतत्त्वनी उपलब्धिरूप सिद्धि’ ––एम
कहीने दीक्षा आपे. आ प्रमाणे चरणानुयोगनी विधि छे; छतां त्यां दीक्षा देनार अने लेनार बंने जाणे छे के अमे
नथी, अमे तो अमारा ज्ञायकभावना ज उत्पादक छीए, ज्ञायकभावमां ज अमारुं तन्मयपणुं छे. ––आवा यथार्थ
भान वगर कदी मुनिदशा होती नथी.