Atmadharma magazine - Ank 134-135
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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: मागसर–पोष : २४८१ : आत्मधर्म : ९३ :
के पुत्रादिकना वियोगमां समकीतिने पण आंखमांथी आंसु चाल्या जाय, छतां ते वखते ते आंसुना तो उत्पादक
नथी, ने अंदर जराक शोकना जे परिणाम थया तेना पण खरेखर ते उत्पादक नथी, ते वखतेय ते पोताना
ज्ञायकभावपणे ज ऊपजता थका ज्ञाता ज छे, ––हर्ष–शोकना कर्ता–भोक्ता नथी. अंर्तद्रष्टिनी आ अपूर्व वात
छे. आ द्रष्टि प्रगट कर्या विना कोईने कदी धर्मनो अंश पण थतो नथी.
[८६] साधकदशामां व्यवहारनुं यथार्थ ज्ञान.
ज्ञायकस्वभाव उपर द्रष्टि राखीने साधकजीव व्यवहारने पण जेम छे तेम जाणे छे. क्रमबद्धपर्यायना यथार्थ
ज्ञानमां व्यवहारनुं पण ज्ञान आवी जाय छे. व्यवहारना नीचे प्रमाणे चार प्रकार पंचाध्यायीमां वर्णव्या छे––
(१) व्यक्तराग, ते असद्भुत उपचरित व्यवहारनयनो विषय,
(२) अव्यक्तराग, ते असद्भुत अनुपचरित व्यवहारनयनो विषय,
(३) ज्ञान परने जाणे छे, त्यां ‘परनुं ज्ञान अथवा तो रागनुं ज्ञान’ कहेवुं ते सद्भुत उपचरित
व्यवहार नयनो विषय छे.
(४) ज्ञान ते आत्मा–एवो गुण–गुणी भेद ते सद्भुत अनुपचरित व्यवहारनयनो विषय छे.
(“नयना आ चारे प्रकारोनुं स्वरूप, तथा ज्ञायकना आश्रये––निश्चयना आश्रये––तेमनो निषेध” ––ए
बाबतमां पू. गुरुदेवना विस्तृत प्रवचन माटे जुओ––आत्मधर्म अंक १०० तथा १०१)
एकाकार ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिथी ज्यां निश्चय सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान प्रगट्यां, ने रागादिथी
भिन्नता जाणी, त्यां साधकदशामां उपर मुजब जे जे व्यवहार होय तेने ज्ञानी पोताना ज्ञाननुं ज्ञेय बनावे छे.
जो के द्रष्टि तो ज्ञायकस्वभाव उपर ज पडी छे, पण ‘पर्यायमां व्यवहार छे ज नहि–राग छे ज नहि’ एम नथी
मानता, तेम ज ते व्यवहारने परमार्थमां पण खतवता नथी, –एटले के ते व्यवहारना अवलंबनथी लाभ
मानता नथी, तेने ज्ञानना ज्ञेयपणे जेम छे तेम जाणे छे. अहीं ज्ञायकसन्मुख ज्ञानना क्रममां रहीने रागना
क्रमने पण जेम छे तेम जाणे ज छे, परंतु ज्ञायकनी अधिकतामां ते रागनो पण अकर्ता ज छे; आवा
ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि ते धर्मनो मूळ पायो छे.
[क्रमबद्धपर्याय उपरनां प्रवचनो अहीं पूर्ण थाय छे; आ प्रवचनो दरमियान, आ विषयने लगती
केटलीक चर्चाओ थएली, ते पण उपयोगी होवाथी अहीं आपवामां आवी छे.]
[८७] ‘केवळीना ज्ञानमां बधी नोंध छे’ परने जाणवानुं ज्ञाननुं सामर्थ्य छे ते कांई
अभूतार्थ नथी.
आ क्रमबद्धपर्याय ते तो वस्तुनुं ज स्वरूप छे; तेने सिद्ध करवा माटे केवळज्ञाननी दलील आपीने एम
कहेवामां आवे छे के सर्वज्ञदेवे केवळ ज्ञानमां एक समयमां त्रण काळ त्रणलोकना स्व–पर समस्त पदार्थोने
प्रत्यक्ष जोया छे अने ते प्रमाणे ज परिणमन थाय छे.
त्यारे आनी सामे केटलाक एम कहे छे के– ‘केवळी भगवान परने तो व्यवहारथी जाणे छे, ने व्यवहार
तो अभूतार्थ छे–एम शास्त्रमां कह्युं छे, माटे केवळी परने न जाणे. ’ –आम कहीने तेओ आ क्रमबद्धपर्यायनी
वातनो विरोध करवा मांगे छे. –पण खरेखर तो ते केवळज्ञाननी अने शास्त्रना कथननी मश्करी करे छे,
शास्त्रनी ओथ लईने पोतानो स्वछंद पोषवा मांगे छे. अरे भाई! केवळीने स्व–परप्रकाशक पूरुं ज्ञानसामर्थ्य
खीली गयुं छे, ते ज्ञान कांई अभूतार्थ नथी. शुं ज्ञाननुं परप्रकाशक सामर्थ्य छे ते कंई अभूतार्थ छे? –नहि. जेम
समयसारनी सातमी गाथामां दर्शन–ज्ञान–चारित्रना गुणभेदने पण अभूतार्थ कह्यो, ––तो शुं आत्मामां ते
गुणो छे ज नहि? –छे तो खरा. तेम केवळीभगवान परने जाणे–तेने व्यवहार कह्यो, तो शुं परनुं जाणपणुं
नथी? परने पण जाणे तो छे ज. केवळी परने जाणता ज नथी–एम नथी. केवळीने परनो आश्रय नथी–परमां
तन्मय थईने नथी जाणता–परनी सन्मुख थईने नथी जाणता–