नथी, ने अंदर जराक शोकना जे परिणाम थया तेना पण खरेखर ते उत्पादक नथी, ते वखतेय ते पोताना
ज्ञायकभावपणे ज ऊपजता थका ज्ञाता ज छे, ––हर्ष–शोकना कर्ता–भोक्ता नथी. अंर्तद्रष्टिनी आ अपूर्व वात
छे. आ द्रष्टि प्रगट कर्या विना कोईने कदी धर्मनो अंश पण थतो नथी.
(२) अव्यक्तराग, ते असद्भुत अनुपचरित व्यवहारनयनो विषय,
(३) ज्ञान परने जाणे छे, त्यां ‘परनुं ज्ञान अथवा तो रागनुं ज्ञान’ कहेवुं ते सद्भुत उपचरित
(“नयना आ चारे प्रकारोनुं स्वरूप, तथा ज्ञायकना आश्रये––निश्चयना आश्रये––तेमनो निषेध” ––ए
जो के द्रष्टि तो ज्ञायकस्वभाव उपर ज पडी छे, पण ‘पर्यायमां व्यवहार छे ज नहि–राग छे ज नहि’ एम नथी
मानता, तेम ज ते व्यवहारने परमार्थमां पण खतवता नथी, –एटले के ते व्यवहारना अवलंबनथी लाभ
मानता नथी, तेने ज्ञानना ज्ञेयपणे जेम छे तेम जाणे छे. अहीं ज्ञायकसन्मुख ज्ञानना क्रममां रहीने रागना
क्रमने पण जेम छे तेम जाणे ज छे, परंतु ज्ञायकनी अधिकतामां ते रागनो पण अकर्ता ज छे; आवा
ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि ते धर्मनो मूळ पायो छे.
प्रत्यक्ष जोया छे अने ते प्रमाणे ज परिणमन थाय छे.
वातनो विरोध करवा मांगे छे. –पण खरेखर तो ते केवळज्ञाननी अने शास्त्रना कथननी मश्करी करे छे,
शास्त्रनी ओथ लईने पोतानो स्वछंद पोषवा मांगे छे. अरे भाई! केवळीने स्व–परप्रकाशक पूरुं ज्ञानसामर्थ्य
खीली गयुं छे, ते ज्ञान कांई अभूतार्थ नथी. शुं ज्ञाननुं परप्रकाशक सामर्थ्य छे ते कंई अभूतार्थ छे? –नहि. जेम
समयसारनी सातमी गाथामां दर्शन–ज्ञान–चारित्रना गुणभेदने पण अभूतार्थ कह्यो, ––तो शुं आत्मामां ते
गुणो छे ज नहि? –छे तो खरा. तेम केवळीभगवान परने जाणे–तेने व्यवहार कह्यो, तो शुं परनुं जाणपणुं
नथी? परने पण जाणे तो छे ज. केवळी परने जाणता ज नथी–एम नथी. केवळीने परनो आश्रय नथी–परमां
तन्मय थईने नथी जाणता–परनी सन्मुख थईने नथी जाणता–