: मागसर–पोष : २४८१ : आत्मधर्म : ९५ :
ने छद्मस्थने माटे जुदुं, ––एम बे प्रकारनुं वस्तुस्वरूप नथी. केवळीने माटे बधुं क्रमबद्धने छद्मस्थने माटे
अक्रमबद्ध एटले छद्मस्थ तेमां आडुंअवळुं पण करी द्ये––एम माननारने क्रमबद्धपर्यायना स्वरूपनी खबर नथी.
केवळी भगवान भले पूरुं प्रत्यक्ष जाणे ने छद्मस्थ पूरुं प्रत्यक्ष न जाणे, तो पण वस्तुस्वरूपनो (क्रमबद्धपर्याय
वगेरेनो) निर्णय तो बंनेने सरखो ज छे. केवळीभगवान बधा द्रव्योनी क्रमबद्धपर्याय थवानुं जाणे, अने
छद्मस्थ तेने अक्रमे थवानुं माने, तो तो तेना निर्णयमां ज विपरीतता थई. ‘हुं ज्ञायक छुं ने पदार्थोनी
क्रमबद्धअवस्था छे’ ––एवो निर्णय करीने ज्ञायकस्वभावसन्मुख परिणमतां ज्ञानीने तो ज्ञाताभावनुं ज
परिणमन खीलतां खीलतां अनुक्रमे केवळज्ञान थई जाय छे. पण जेने हजी तो निर्णयमां ज भूल छे तेने
ज्ञातापणानुं परिणमन थतुं नथी पण विकारनुं ज कर्तापणुं रहे छे.
[९०] ज्ञान अने ज्ञेयनो मेळ, ––छतां बंनेनी स्वतंत्रता.
प्रश्न:– केवळीभगवाने जेम जाण्युं तेम आ जीवने परिणमवुं पडे छे? के आ जीव जेम परिणमे तेम
केवळीभगवान जाणे छे?
उत्तर:– पहेली वात ए छे के केवळज्ञाननो निणर्य करनारे ‘ज्ञानशक्ति’ ना अवलंबने ए निर्णय कर्यो
छे एटले तेनामां निर्मळ परिणमन (सम्यग्दर्शनादि) थई गयुं छे, अने केवळीभगवाने पण तेम ज जाण्युं छे.
केवळीभगवाननुं ज्ञान, अने आ जीवनुं परिणमन, ––ए बंनेनो ज्ञेयज्ञायकपणनो मेळ होवा छतां,
कोईने आधीन कोई नथी. केवळीभगवाने तो बधा पदार्थोनी त्रणेकाळनी अवस्था एक साथे जाणी लीधी छे, ने
पदार्थमां परिणमन तो एक पछी एक अवस्थानुं थाय छे. केवळीए जाण्युं माटे पदार्थने तेवुं परिणमवुं पडे छे––
एम नथी, अथवा पदार्थ तेम परिणमे छे माटे केवळी तेवुं जाणे छे––एम पण नथी. अने आम होवा छतां
केवळज्ञान अने ज्ञेयनी संधि तूटती पण नथी; केवळज्ञाने जाण्युं तेनाथी बीजी रीते वस्तु परिणमे, अथवा तो
वस्तु परिणमे तेनाथी बीजी रीते केवळज्ञान जाणे––एम कदी बनतुं नथी.
आमां, केवळज्ञाननी एटले के आत्माना ज्ञायकस्वभावनी महत्ता समजवी, ने ज्ञायकसन्मुख थईने
परिणमवुं, ते ज मूळभूत वस्तु छे.
[९१] आगमने जाणशे कोण?
प्रश्न:– आ क्रमबद्धपर्यायनी आप कहो छो एवी वात आगममां मळती नथी.
उत्तर:– अरे भाई! हजी तने सर्वज्ञनो तो निर्णय नथी, तो सर्वज्ञना निर्णय वगर, ‘सर्वज्ञना आगम
केवां होय अने तेमां शुं कह्युं छे’ तेनी तने शुं खबर पडे? गुरुगम वगर, पोतानी ऊंधी द्रष्टिथी आगमना अर्थ
भासे तेम नथी. आगम कहे छे के आत्मानो ज्ञानस्वभाव छे ने तेमां सर्वज्ञतानुं सामर्थ्य छे. जो आवा
ज्ञानस्वभावने अने सर्वज्ञताने न जाणे तो तेणे आगमने जाण्या ज नथी. अने जो आवा ज्ञान स्वभावने माने
तो क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय तेमां आवी ज जाय छे.
क्रमबद्धपर्याय सीधी रीते न समजे तेने समजाववा माटे आ केवळज्ञाननी दलील आपवामां आवे छे; बाकी
तो वस्तु पोते ज तेवा स्वभाववाळी छे, क्रमबद्धपर्याय ते वस्तुनुं ज स्वरूप छे, ते कांई केवळज्ञानने कारणे नथी.
[९२] केवळज्ञानना ने क्रमबद्धपर्यायना निर्णय विना धर्म केम न थाय?
प्रश्न:– आप केवळज्ञान अने क्रमबद्धपर्याय उपर आटलो बधो भार आपो छो, तो शुं सर्वज्ञना निर्णय
विना के क्रमबद्धपर्यायना निर्णय विना धर्म न थई शके?
उत्तर:– ना; भाई! आ केवळज्ञाननो के क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय तो ज्ञानस्वभावना अवलंबने थाय छे,
ने एना विना कदी धर्म थतो नथी. ज्ञानस्वभाव कहो, केवळज्ञान कहो के क्रमबद्धपर्याय कहो, ए त्रणेमांथी
एकना निर्णयमां बीजा बेनो निर्णय पण आवी जाय छे अने जो केवळज्ञानने के क्रमबद्धपर्यायने न माने तो ते
खरेखर आत्माना ज्ञानस्वभावने ज नथी मानतो. आ तो जैनधर्मनी मूळ वात छे. सर्वज्ञता तो जैनधर्मनी
मूळ वस्तु छे, तेना निर्णय विना धर्मनी शरूआत थाय एम कदी बनतुं नथी. स्वसन्मुख थईने ‘हुं ज्ञान छुं’
एवी ज्ञाताबुद्धि थतां सर्वज्ञतानो निर्णय पण थई गयो, क्रमबद्धपर्यायनो पण निर्णय थई गयो, क्यांय फेरफार
करवानी बुद्धि न रही, ––आनुं नाम धर्म छे.