: ९६ : आत्मधर्म : मागसर–पोष : २४८१ :
[९३] तिर्यंच–समकीतिने पण क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीत.
प्रश्न:– तिर्यंचमां पण कोई कोई जीवो (मेंढक वगेरे) समकीति होय छे, तो ते तिर्यंच समकीतिने पण शुं
आवी क्रमबद्धपर्यायनी श्रद्धा होय छे?
उत्तर:– हा; ‘क्र–म–ब–द्ध’ एवा शब्दनी भले तेने खबर न होय, पण “हुं ज्ञायक छुं, मारो आत्मा बधुं
जाणवाना स्वभाववाळो छे” ––एवा अंतर्वेदनमां क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीत पण तेने आवी जाय छे;
क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीतनुं जे कार्य छे ते कार्य तेने थई ज रह्युं छे. तेनुं ज्ञान ज्ञाताभावे ज परिणमे छे. परनो
कर्ता के रागनो कर्ता–एवी बुद्धि तेने नथी, ज्ञाताबुद्धि ज छे, ने तेमां क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीत समाई जाय छे.
ज्ञानपर्यायने अंतरमां वाळीने ‘हुं ज्ञायक भावरूप जीवतत्त्व छुं’ एवी प्रतीत थई छे त्यां क्रमबद्धपर्यायनुं
ज्ञातापणुं ज छे.
वळी जुओ, ते देडकांने के चकलां वगेरे तिर्यंचने सम्यग्दर्शन थतां, स्वसन्मुख थईने संवर–निर्जरा दशा
प्रगटी छे पण हजी केवळज्ञान नथी थयुं. पर्यायमां हजी अल्पता अने राग पण छे, छतां ते पर्यायने जाणतां
तेने एवो विकल्प के संदेह नथी ऊठतो के “अत्यारे आवी पर्याय केम? ने केवळज्ञान पर्याय केम नहीं? ” एवो
ज ते पर्यायनो क्रम छे एम जाणे छे. केवळज्ञान नथी तेथी कांई सम्यग्दर्शनमां तेने शंका नथी पडती. ए ज
प्रमाणे ते पर्यायमां राग छे तेने पण जाणे छे. पण ते रागने जाणतां ते तिर्यंचसमकीति तेने स्वभावपणे नथी
वेदता, रागथी भिन्न ज्ञायकस्वभावपणे ज पोताने अनुभवे छे. राग छे तेटलुं तेनुं वेदन छे, पण ज्ञायकद्रष्टिमां
तेनुं वेदन छे ज नहि. ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टिथी ज्ञान समाधानपणे वर्ते छे, क्यांय परने आघुंपाछुं करवानी
मिथ्याबुद्धि थती नथी, ए ज क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीतनुं फळ छे.
––ए रीते, जे कोई समकीति जीवो छे ते बधायने पोताना ज्ञायकस्वभावना निर्णयमां, सर्वज्ञनी तेमज
क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीत पण भेगी आवी ज जाय छे;–एथी विपरीत माननारने सम्यग्दर्शन होतुं नथी.
सम्यग्दर्शन कहो, ‘के...व...ळ’ ज्ञान (एटले के रागथी जुदुं ज्ञान) कहो, भेदज्ञान कहो, क्रमबद्धपर्यायनो
निर्णय कहो, जैनशासन कहो के धर्मनी शरूआत कहो, ––ते बधुंय आमां एक साथे आवी जाय छे.
[९४] क्रमबद्धपर्यायना निर्णयनुं फळ– ‘अबंधपणुं’ “ज्ञायकने बंधन नथी.”
जीव अने अजीव बंनेनी क्रमबद्धपर्याय पोतपोताथी स्वतंत्र छे; ज्ञायकस्वरूप जीव पोताना
ज्ञायकपणानी क्रमबद्धपर्यायमां परिणमतो तेनो ज्ञाता छे, पण परनो अकर्ता छे. आ रीते अकर्तापणे परिणमता
ज्ञायकने बंधन थाय ज नहि.
––आम होवा छतां, अज्ञानीने बंधन केम थाय छे? आचार्यदेव कहे छे के ए तेना अज्ञाननो महिमा
प्रगट छे, तेना अज्ञानने लीधे ज तेने बंधन थाय छे. ज्ञायक स्वभावनो महिमा जाणे तो तो बंधन न थाय;
ज्ञायकस्वभावनो महिमा भूलीने जे परनो कर्ता थाय छे तेने अज्ञाननो महिमा प्रगट थयो छे अने तेथी ज तेने
बंधन थाय छे.
ज्ञायकस्वभावे परिणमतो जीव, मिथ्यात्वादि कर्मना बंधनमां निमित्त पण थतो नथी; निमित्तपणे पण ते
मिथ्यात्वादिनो अकर्ता ज छे.
“अजीवनी क्रमबद्धपर्याय पण स्वतंत्र छे, माटे तेनामां जो मिथ्यात्वकर्मरूपे परिणमवानुं उपादान होय
तो अमारे पण मिथ्यात्वभाव करीने तेने निमित्त थवुं पडे! ” ––आवी जेनी द्रष्टि छे तेने अज्ञाननो महिमा
प्रगट छे एटले के ते मोटो अज्ञानी छे. ज्ञायकस्वभावनी के क्रमबद्धपर्यायनी तेने खबर नथी. ज्ञानीए तो
ज्ञानस्वभाव उपर द्रष्टि राखीने क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय कर्यो छे, एटले तेनी द्रष्टिनुं परिणमन तो स्वभाव
तरफ वळी गयुं छे, कर्मने निमित्त थवा उपर तेनी द्रष्टि नथी. मिथ्यात्वादि कर्म तेने बंधातुं ज नथी.
क्रमबद्धपर्यायनो यथार्थ निर्णय करनारने पोतामां मिथ्यात्वनो क्रम न होय––ए वात पहेलांं करी अने
निमित्त तरीके अजीवमां पण तेने मिथ्यात्वनो क्रम होतो नथी.
“जडमां मिथ्यात्वनो क्रम होय तो जीवने मिथ्यात्व करवुं पडे” ––ए दलील तीव्र मिथ्याद्रष्टि अज्ञानीनी
छे; ते अजीवने ज देखे छे पण जीवने नथी देखतो; जीवना