: ९८ : आत्मधर्म : मागसर–पोष : २४८१ :
एम कोई माने, तो तेने कहे छे के भाई! ज्ञायक तरफना पुरुषार्थ वगर तुं क्रमबद्धनो ज्ञाता कई रीते थयो? तारा
ज्ञायकस्वभावना निर्णयनो प्रयत्न कर्या वगर क्रमबद्धपर्यायने तुं कई रीते समज्यो? स्वसन्मुख थईने
ज्ञायकस्वभावनो निर्णय करे तेने ज क्रमबद्धपर्याय समजाय छे, अने तेनी पर्यायमां निर्मळतानो क्रम शरू थई
जाय छे. आ रीते, स्वसन्मुख पुरुषार्थ अने क्रमबद्धपर्यायना निर्णयनी संधि छे.
[९७] क्रमबद्धपर्याय अने तेनुं कर्तापणुं.
प्रश्न:– क्रमबद्धपर्याय छे तेमां कर्तापणुं छे के नहि?
उत्तर:– हा; जेणे स्वसन्मुख थईने पोताना ज्ञायकस्वभावनो निर्णय कर्यो छे तेने पोतानी निर्मळ
क्रमबद्धपर्यायनुं कर्तापणुं छे; अने जेने ज्ञायकस्वभावनी द्रष्टि नथी ने परमां कर्तृत्वबुद्धि छे तेने पोतामां
मिथ्यात्वादि मलिन भावोनुं कर्तापणुं छे.
अजीवने ते अजीवनी क्रमबद्ध अवस्थानुं कर्तापणुं छे. क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय करीने जे जीव
ज्ञायकस्वभाव तरफ वळी गयो छे तेने विकारनुं कर्तापणुं रहेतुं नथी, ते तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र रूप
निर्मळ ज्ञानभावनो ज कर्ता छे.
[९८] झीणुं––पण समजाय तेवुं!
प्रश्न:– आप कहो छो ते वात तो घणी सरस छे, पण बहु झीणी वात छे;––आवी झीणी वात!
उत्तर:– भाई, झीणुं तो खरुं;––पण समजाय तेवुं झीणुं छे के न समजाय तेवुं? आत्मानो स्वभाव ज
झीणो (अतीन्द्रिय) छे, एटले तेनी वात पण झीणी ज होय. आ झीणुं होवा छतां समजी शकाय तेवुं छे.
आत्मानी खरे... खरी. जिज्ञासा होय तो आ समजाया वगर रहे नहि. वस्तुस्वरूपमां जेम बनी रह्युं छे ते ज
समजवानुं आ कहेवाय छे; माटे झीणुं लागे तो पण ‘समजाय तेवुं छे, अने आ समजवामां ज मारुं हित छे’ ––
एम विश्वास अने उल्लास लावीने अंतरमां प्रयास करवो जोईए. आ समज्या वगर ज्ञान कदी साचुं थाय
नहि, ने साचा ज्ञान वगर शांति थाय नहि. ‘झीणुं छे माटे मने नहि समजाय’ –एम न लेवुं; पण झीणुं छे माटे
ते समजवा मारे अपूर्व प्रयत्न करवो–एम बहुमान लावीने समजवा मांगे तो आ अवश्य समजाय तेवुं छे.
अहो! आ तो अंतरनी अध्यात्मविद्या छे; आ अध्यात्मविद्याथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय कर्या
वगरनुं बीजुं बधुं बहारनुं जाणपणुं ते तो म्लेच्छविद्या समान छे, तेनाथी आत्मानुं कांई पण हित नथी.
अनंतकाळमां पूर्वे आ वात नथी समज्यो तेथी सूक्ष्म छे; तो पण जिज्ञासु थईने समजवा मागे तो
समजाय तेवी छे. भाई! तुं मूंझाई न जा... पण अंदर जा. मूंझवण ते मार्ग नथी, ज्ञानस्वभावने लक्षमां
पकडीने अंतर्मुख था... वर्तमानमां जे ज्ञान जाणवानुं कार्य करी रह्युं छे ते ज्ञान कोनुं छे? ते ज्ञानना दोरे–दोरे
अंतरमां जईने अव्यक्त चिदानंद स्वभावने पकडी ले... अंदरना चैतन्य दरवाजाने खोल. आ चैतन्यस्वभावमां
ऊतरतां बधुं समजाई जाय छे, ने मूंझवण मटी जाय छे.
[९९] साचो विसामो...
प्रश्न:– क्रमबद्धपर्याय समये समये सदाय थया ज करे, तेमां वच्चे क्यांय जरापण विसामो नहि?
उत्तर:– भाई, आ समजण तो तारा अनादिना भवभ्रमणनो थाक उतारी नांखे तेवी छे.
क्रमबद्धपर्यायनी प्रतीत करीने ज्ञायकस्वभाव तरफ एकाग्र थयो ते ज खरो विसामो छे. ––तेमांय समये समये
पर्यायनुं परिणमन तो चाल्या ज करे छे, पण ते परिणमन ज्ञान अने आनंदमय छे तेथी तेमां आकुळता के थाक
नथी, तेमां तो परम अनाकुळता छे ने ते ज साचो विसामो छे. अज्ञानी जीव ज्ञायकपणाने भूलीने “परमां आ
करुं... आ करुं” एवी मिथ्यामान्यताथी आकुळ–व्याकुळ दुःखी थई रह्यो छे ने भवभ्रमणमां भटकी रह्यो छे; जो
आ ज्ञायकस्वभावनी ने क्रमबद्धपर्यायनी वात समजे तो अनंती आकुळता मटी जाय अंर्तस्वभावमां ज्ञान–
आनंदना अनुभवरूप साचो विसामो मळे.
[१००] समकीति कहे छे–– “श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं छे.”
आ क्रमबद्धपर्यायना यथार्थ निर्णयमां ज्ञानस्वभावनो ने केवळज्ञाननो निर्णय आवी जाय छे. जेम
केवळी भगवान परिपूर्ण ज्ञायक ज छे, तेम मारो स्वभाव पण ज्ञायक ज छे––आवो निर्णय थतां श्रद्धापणे
केवळज्ञान थयुं. हजी साधकदशामां अल्पज्ञान होवा छतां ते पण ज्ञायकस्वभावना अवलंबने ज्ञातापणानुं ज
काम करे छे, एटले