: १०० : आत्मधर्म : मागसर–पोष : २४८१ :
केवळज्ञाननी ज वर्ते छे, रागनी के व्यवहारनी भावना नथी, पण केवळज्ञाननी ज भावना छे.
• आटली वात तो केवळज्ञानपर्यायनी करी, पण केवळज्ञान प्रगटशे क्यांथी? ––ते वात भेगी जणावे
छे––
“मुख्यनयना हेतुथी केवळज्ञान वर्ते छे...”
निश्चयनय एटले मुख्यनय; अध्यात्ममां मुख्यनय तो निश्चयनय ज छे. ते निश्चयनयथी वर्तमानमां ज
शक्तिपणे केवळज्ञान वर्ते छे.
शक्तिपणे केवळज्ञान तो बधा जीवोने छे, पण एम कहे छे कोण? ––के जेणे ते शक्तिनी प्रतीत थई छे
ते. एटले श्रद्धा तो प्रगटी छे.
आ रीते आमां जैनशासन गोठवी दीधुं छे. शक्ति शुं, व्यक्ति शुं, शक्तिनी प्रतीत शुं, केवळज्ञान शुं ए
बधुं आमां आवी जाय छे.
• अहो, सम्यग्दर्शन थतां समकीति कहे छे के ‘श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं’ अहीं ज्ञायकसन्मुख थईने
क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय कर्यो तेमां पण श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं... प्रतीत तो वर्तमानमां प्रगटी छे. जेम
केवळीभगवान ज्ञायकपणानुं ज काम करे छे तेम मारो स्वभाव पण ज्ञायक छे, मारुं ज्ञान पण ज्ञायकसन्मुख
रहीने ज्ञातापणानुं ज काम करे छे–आम समकीतिने प्रतीत थई छे, –आ रीते श्रद्धापणे केवळज्ञान थयुं छे.
• सर्वज्ञस्वभावना अवलंबने आवी श्रद्धा थतां, जीव केवळज्ञान पामवाने योग्य थयो. तेना
उल्लासमां भक्तिपूर्वक नमस्कार करतां कहे छे के–अहो! सर्व–अव्याबाध सुखनुं प्रगट करनार एवुं केवळज्ञान,
ते जेना योगे सहज मात्रमां जीव पामवा योग्य थयो ते सत्पुरुषना उपकारने सर्वोत्कृष्ट भक्तिए नमस्कार हो...
नमस्कार हो...!
[१०१] “केवळज्ञानना कक्का” नां तेर प्रवचनो... अने केवळज्ञान साथे संधिपूर्वक तेनुं
अंतमंगळ.
आ क्रमबद्धपर्याय उपर पहेली वखतना ‘आठ’ , ने बीजी वखतना ‘पांच’ , एम कुल ‘तेर’ प्रवचनो
थया; तेरमुं गुणस्थान केवळज्ञाननुं छे, ने ज्ञायकसन्मुख थईने आ क्रमबद्धपर्यायनो निर्णय करवो ते
‘केवळज्ञाननो कक्को’ छे, तेनुं फळ केवळज्ञान छे. आनो निर्णय करे तेने क्रमबद्धपर्यायमां अल्पकाळमां केवळज्ञान
थया वगर रहे नहीं आ क्रमबद्धनो निर्णय करनार ‘केवळीभगवाननो पुत्र’ थयो, प्रतीतपणे केवळज्ञान
प्रगट्युं, तेने हवे विशेष भव होय नहि. ज्ञायकस्वभावे सन्मुख थईने आ निर्णय करतां अपूर्व सम्यग्दर्शन
प्रगटे छे, ने पछी निर्मळ–निर्मळ क्रमबद्धपर्यायो थतां अनुक्रमे चारित्रदशा अने केवळज्ञान थाय छे.
आ रीते केवळज्ञान साथे संधिपूर्वक आ विषय पूरो थाय छे.