Atmadharma magazine - Ank 136
(Year 12 - Vir Nirvana Samvat 2481, A.D. 1955)
(Devanagari transliteration).

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माह: २४८१ : ११७ :
अज्ञानी कहे छे के मने सिद्ध देखाता नथी, धर्मी कहे के मारा हृदयमां ज सिद्धभगवान बिराजे छे सिद्ध भगवाननो
आत्मा भले प्रत्यक्ष न देखाय पण जेणे मतिश्रुतज्ञानने स्वसन्मुख करीने स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी सिद्धभगवान
जेवा पोताना शुद्धस्वभावने देख्यो तेणे सिद्धभगवानने पण देख्या छे ने पोताना हृदयमां तेमने स्थाप्या छे.
आ प्रमाणे सिद्धभगवंतोने हृदयमां स्थापीने तेमने अमारा नमस्कार हो!
ए रीते अरिहंत अने सिद्ध परमेष्ठीनुं स्वरूप ओळखीने तेमने नमस्कार कर्या; हवे आचार्य–उपाध्याय
ने साधु परमेष्ठीनुं स्वरूप अवलोकीए छीए.
[३ – ४ – प]
श्री आचार्य उपाध्याय अने साधुनुं स्वरूप
• आचार्य उपाध्याय के साधु ए सर्वे मुनिओनी दशा केवी होय तेनुं पहेलांं सामान्य रूप वर्णन करे छे.
त्यार पछी आचार्य वगेरेनी विशेषतानुं वर्णन करशे. जे जैन मुनि छे ते सर्वेनी दशा नीचे प्रमाणे होय छे :
• जे विरागी बनी, समस्त परिग्रह छोडी, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करी, अंतरंगमां तो ए
शुद्धोपयोग वडे पोते पोताने अनुभवे छे;
• परद्रव्यमां अहंबुद्धि धारता नथी;
• पोताना ज्ञानादिक सवभावोने ज पोताना माने छे;
• परभावोमां ममत्व करता नथी;
• परद्रव्य तथा तेना स्वभावो ज्ञानमां प्रतिभासे छे तेने जाणे छे तो खरा; परंतु ईष्ट–अनिष्ट मानीने
तेमां राग–द्वेष करता नथी.
• शरीरनी अनेक अवस्था थाय छे, बाह्य अनेक प्रकारनां निमित्त बने छे परंतु ते मुनि त्यां कंई पण
सुखदुःख मानता नथी.
• पोताने योग्य बाह्यक्रिया जेम बने छे तेम बने छे परंतु तेने खेंचीताणीने करता नथी.
• तेओ पोताना उपयोगने बहु भमावता नथी, पण उदासीन थई निश्चलवृत्तिने धारण करे छे.
• कदाचित् मंद रागना उदयथी शुभोपयोग पण थाय छे, जे वडे ते शुद्धोपयोगनां बाह्य साधनोमां
अनुराग करे छे,
• –परंतु ए रागभावने पण हेय जाणी दूर करवा ईच्छे छे.
• तीव्र कषायना उदयना अभावथी हिंसादि अशुभोपयोग परिणतिनुं तो अस्तित्व तेमने रह्युं नथी.
• सर्वे मुनिओने एवी अंतरंग अवस्था थतां बाह्य दिगंबर सौम्य मुद्राधारी थया छे.
• शरीर संस्कारादि विक्रियाथी रहित थया छे,
• वन खंडादि विषे वसे छे,
• अठ्ठावीस मूळगुणोने जेओ अखंडित पालन करे छे.
• बावीस परिषहने जेओ सहन करे छे.
• बार प्रकारना तपने जेओ आदरे छे,
• कदाचित् ध्यानमुद्रा धारी प्रतिमावत् निश्चल थाय छे.
• कदाचित् अध्ययनादिक बाह्य धर्मक्रियामां प्रवर्ते छे.
• कोई वेळा मुनिधर्मने सहकारी शरीरनी स्थिति अर्थे योग्य आहार–विहारादि क्रियामां सावधान थाय छे–
––ए प्रमाणे जेओ जैनमुनि छे ते सर्वनी एवी ज अवस्था होय छे.
[मुनिधर्मनुं मूळ – सम्यग्दर्शन]
आत्माना ज्ञानपूर्वक वैराग्य थतां, समस्त परिग्रह छोडीने, अंतरमां शुद्धोपयोग वडे त्रण कषायोनो
अभाव थतां मुनिदशा प्रगटे छे. मुनिधर्म केवो छे?–के शुद्धोपयोगरूप छे. ते धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे, एटले
मुनि थनारने सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान तो पहेलांं थयुं छे. माटे सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक ज आ मुनिदशानी
वात छे एम समजवुं. सम्यग्दर्शन वगर तो चोथुं के पांचमुं गुणस्थान पण होतुं नथी, तो पछी मुनिदशानुं छठुं–
सातमुं गुणस्थान तो केम होय?